अपच और अनिद्रा चिन्ता के कारण उत्पन्न होते हैं तथा चिंता से ये उग्र रूप धारण कर लेते हैं। अनिद्रा में जप करने के लिए बैठ जाएं। बैठकर केवल तटस्थ चिन्तन (अपने विचारों के साथ सहयोग न करते हुए, उन्हें देखते रहना) करने लगना भी मन को शान्त कर देता है। आखिर, मन के विचार तो आपके ही हैं। उनसे आप कब तक डरेंगे? मन के विचारों को, वे कितने भी डरावने क्यों न हों, शांत भाव से तटस्थ होकर बार-बार देखने से, उनकी भीषणता का शमन हो जाता है। मन के साथ समझौता तथा अपने साथ मेल करने का यही एक ढंग है। यदि मन के साथ मैत्री हो गयी, तो आपने रोग और कष्ट पर आधी विजय पा ली। मन के साथ मित्रता करने का अर्थ है, मन को समझकर उसे स्वीकार करना तथा धैर्यपूर्वक उत्तम दिशा देना अथवा उसे जीत लेना। मन को जीतकर मानो आपने एक साम्राज्य जीत लिया।
घृणा, क्रोध, भय, चिन्ता, ईर्ष्या, द्वेष, क्लेश आदि मनोविकार रक्त संचार पर भी कुप्रभाव डाल देते हैं तथा मानसिक विकलता उत्पन्न कर देते हैं। यदि आपको एक बार कोई रोग हुआ था और अब पुनः उसका प्रभाव हो गया है तो आप यह कल्पना एवं चिन्ता न करने लगें कि पुनः रोग उग्र हो जायगा। अब तो आपको आदत पड़ गयी और आप उस रोग का रहस्य जान गये। अतः विश्वास करें कि शीघ्र ही आप उस पर विजय पा लेंगे। सैकड़ों लोग की रोग से मुक्ति होती है, आपकी भी होगी। मन में यह विश्वास दृढ़ कर लें।
'मन के जीते जीत है मन के हारे हार।'
चिन्ता और भय के वेग से रसों का स्राव अवरुद्ध हो जाता है, रक्त-संचार बाधित हो जाता है और पाचन शिथिल हो जाता है। आप जैसा विचार करेंगे, वैसे ही बन जायेंगे। स्वस्थ विचार कीजिये और स्वस्थ बन जाइये। अपनी शक्तियों पर तथा प्रभु-कृपा पर विश्वास कीजिए। चिन्ता और भय को अभी निकाल फेंकिये।
जब भय का राक्षस आपको घेर रहा हो, आप चुपचाप उसको सुन लें। भय आपके सामने आपकी दुर्गति के जिस भयानक काल्पनिक चित्र को प्रस्तुत कर रहा हो, उसे भी देख लें और जरा मन में फैसला कर लें कि आप उसके लिए बिल्कुल तैयार हैं, बस, इस राक्षस के प्राण निकल जायेंगे और तुंरत इसकी मृत्यु हो जायगी। भय के कारण आप तिनके को तलवार समझ रहे हैं, तिल को पहाड़ मान रहे हैं। आपने ही भय को पालकर अपने सीने पर शत्रु को खड़ा कर लिया था। आप ही उसे भगा सकते हैं।
चिन्ता के स्थान पर चिन्तन करें, योजना बनायें और कर्म करें तथा परिस्थितियों का सामना करें। चिन्ता एक काल्पनिक दैत्य है, जिसे हमने स्वयं ही चिपटाया है। चिन्ता हमें क्रियाशील नहीं होने देती तथा हमारी दुर्गति कर देती है। आखिर, पलायन कब तक करेंगे? पलायन के स्थान पर साहसपूर्वक संघर्ष तथा कर्म करना सीखें। उत्साह आपका श्रेष्ठ मित्र है, आत्मविश्वास आपका सहोदर भ्राता है। इनका तिरस्कार न करें।
उलझन और समस्या बाहर संसार में नहीं है, मन में है। बाहर तो केवल परिस्थितियां हैं। उलझनों में फँसकर दम घोट लेने के बजाय उन्हें चुनौती देकर उनसे छुटकारा पा लेना मोक्ष है, मुक्ति है। निश्चिन्त, प्रफुल्ल मन स्वर्ग है तथा उलझा हुआ मन नरक है, जिसके जिम्मेदार हम स्वयं हैं। अपनी उलझनों के लिए दूसरों को उत्तरदायी ठहराकर, दूसरों को कोसकर उलझनों को हल नहीं हो सकता है। हमारी उलझनें हमारे सुलझाने से ही सुलझेंगी। उत्साह, आत्मविश्वास और धैर्य से उलझनें हँसते-हँसते सुलझ जायेंगी। सब कुछ खोकर भी परम मूल्यवान् जीवन तो अभी शेष है, जो वास्तव में सब कुछ है। हमें नये सिरे से शून्य से ही पुनः प्रारम्भ करके चमक उठने के लिए तैयार रहना चाहिए।'हम गिरकर फिर उठ जायेंगे'-यह आत्मविश्वास सुख और समृद्धि का मूलमंत्र है। बाहर की कठिन परिस्थितियों को चिंता को द्वारा मानसिक समस्या बना लेना अविवेक ही तो है। बाह्य स्थिति को वस्तुपरक (आब्जेक्टिव) दृष्टि से ही देखना चाहिए, न कि व्यक्तिपरक (सब्जेक्टिव) बनाकर। कुछ लोग अपनी तथा दूसरों की सुलझी हुई गुत्थी को फिर उलझा देने में निपुण होते हैं।
घृणा, क्रोध, भय, चिन्ता, ईर्ष्या, द्वेष, क्लेश आदि मनोविकार रक्त संचार पर भी कुप्रभाव डाल देते हैं तथा मानसिक विकलता उत्पन्न कर देते हैं। यदि आपको एक बार कोई रोग हुआ था और अब पुनः उसका प्रभाव हो गया है तो आप यह कल्पना एवं चिन्ता न करने लगें कि पुनः रोग उग्र हो जायगा। अब तो आपको आदत पड़ गयी और आप उस रोग का रहस्य जान गये। अतः विश्वास करें कि शीघ्र ही आप उस पर विजय पा लेंगे। सैकड़ों लोग की रोग से मुक्ति होती है, आपकी भी होगी। मन में यह विश्वास दृढ़ कर लें।
'मन के जीते जीत है मन के हारे हार।'
चिन्ता और भय के वेग से रसों का स्राव अवरुद्ध हो जाता है, रक्त-संचार बाधित हो जाता है और पाचन शिथिल हो जाता है। आप जैसा विचार करेंगे, वैसे ही बन जायेंगे। स्वस्थ विचार कीजिये और स्वस्थ बन जाइये। अपनी शक्तियों पर तथा प्रभु-कृपा पर विश्वास कीजिए। चिन्ता और भय को अभी निकाल फेंकिये।
जब भय का राक्षस आपको घेर रहा हो, आप चुपचाप उसको सुन लें। भय आपके सामने आपकी दुर्गति के जिस भयानक काल्पनिक चित्र को प्रस्तुत कर रहा हो, उसे भी देख लें और जरा मन में फैसला कर लें कि आप उसके लिए बिल्कुल तैयार हैं, बस, इस राक्षस के प्राण निकल जायेंगे और तुंरत इसकी मृत्यु हो जायगी। भय के कारण आप तिनके को तलवार समझ रहे हैं, तिल को पहाड़ मान रहे हैं। आपने ही भय को पालकर अपने सीने पर शत्रु को खड़ा कर लिया था। आप ही उसे भगा सकते हैं।
चिन्ता के स्थान पर चिन्तन करें, योजना बनायें और कर्म करें तथा परिस्थितियों का सामना करें। चिन्ता एक काल्पनिक दैत्य है, जिसे हमने स्वयं ही चिपटाया है। चिन्ता हमें क्रियाशील नहीं होने देती तथा हमारी दुर्गति कर देती है। आखिर, पलायन कब तक करेंगे? पलायन के स्थान पर साहसपूर्वक संघर्ष तथा कर्म करना सीखें। उत्साह आपका श्रेष्ठ मित्र है, आत्मविश्वास आपका सहोदर भ्राता है। इनका तिरस्कार न करें।
उलझन और समस्या बाहर संसार में नहीं है, मन में है। बाहर तो केवल परिस्थितियां हैं। उलझनों में फँसकर दम घोट लेने के बजाय उन्हें चुनौती देकर उनसे छुटकारा पा लेना मोक्ष है, मुक्ति है। निश्चिन्त, प्रफुल्ल मन स्वर्ग है तथा उलझा हुआ मन नरक है, जिसके जिम्मेदार हम स्वयं हैं। अपनी उलझनों के लिए दूसरों को उत्तरदायी ठहराकर, दूसरों को कोसकर उलझनों को हल नहीं हो सकता है। हमारी उलझनें हमारे सुलझाने से ही सुलझेंगी। उत्साह, आत्मविश्वास और धैर्य से उलझनें हँसते-हँसते सुलझ जायेंगी। सब कुछ खोकर भी परम मूल्यवान् जीवन तो अभी शेष है, जो वास्तव में सब कुछ है। हमें नये सिरे से शून्य से ही पुनः प्रारम्भ करके चमक उठने के लिए तैयार रहना चाहिए।'हम गिरकर फिर उठ जायेंगे'-यह आत्मविश्वास सुख और समृद्धि का मूलमंत्र है। बाहर की कठिन परिस्थितियों को चिंता को द्वारा मानसिक समस्या बना लेना अविवेक ही तो है। बाह्य स्थिति को वस्तुपरक (आब्जेक्टिव) दृष्टि से ही देखना चाहिए, न कि व्यक्तिपरक (सब्जेक्टिव) बनाकर। कुछ लोग अपनी तथा दूसरों की सुलझी हुई गुत्थी को फिर उलझा देने में निपुण होते हैं।
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