Monday, February 28, 2011

हिन्दी को “भ्रष्ट” होने से भी बचायें


 हिन्दी को “भ्रष्ट” होने से भी बचायें

Corrupt Hindi Language & Education
लफ़ड़ा”, “हटेले”, “खाली-पीली”, “बोम मत मार”, “निकल पड़ी”..... क्या कहा, इन शब्दों का मतलब क्या है? मत पूछिये, क्योंकि यह एक नई भाषा है, जिसका विस्तार (?) तेजी से हो रहा है, स्रोत है मायानगरी मुम्बई की हिन्दी फ़िल्में। दृश्य मीडिया की भाषा की एक बानगी – “श्रीलंकन गवर्नमेंट ने इस बात से डिनाय किया है कि उसने जफ़ना अपने ट्रूप्स को डिप्लॉय करने का प्लान बनाया है”, हाल ही में हिन्दी के सबसे ज्यादा प्रसार संख्या वाले “भास्कर” में छपा एक विज्ञापन- “कृतिकार भास्कर क्रिएटिव अवार्ड्स में एंट्री भेजने की लास्ट डेट है 31 अगस्त“... ऐसी भाषा का स्रोत हैं नये-नवेले भर्ती हुए तथाकथित चॉकलेटी पत्रकार जो कैमरा और माईक हाथ में आते ही अपने-आप को सभी विषयों का ज्ञाता और जमीन से दो-चार इंच ऊपर समझने लगते हैं। जिन्हें न तो भाषा से कोई मतलब है, ना हिन्दी से कोई वास्ता है, ना इस बात से कि इस प्रकार की भाषा का संप्रेषण करके वे किसके दिलो-दिमाग तक पहुँचना चाहते हैं।
  किसी भी भाषा का विस्तार, उसका लगातार समृद्ध होना एवं उस भाषा के शब्दकोष का विराटतर होते जाना एक सतत प्रक्रिया है, जो वर्षों, सदियों तक चलती है। इसमें हिन्दी या अंग्रेजी भी कोई अपवाद नहीं है, परन्तु उपरोक्त उदाहरण हमारे सामने एक गंभीर प्रश्न खड़ा करते हैं कि आने वाले दस-बीस वर्षों मे आम बोलचाल की भाषा क्या होगी? उसका स्वरूप कैसा होगा? क्या इस “हिंग्लिश” को ही हम धीरे-धीरे मान्यता प्रदान कर देंगे (यह हमारी मातृभाषा कहलायेगी?), न सिर्फ़ हिंग्लिश बल्कि मुम्बईया टपोरी भाषा भी तेजी से फ़ैल रही है और प्रचलित भाषा को भ्रष्ट किये दे रही है।
  आमतौर पर इस बात पर बहस चलती रहती है कि समाज में जो घटित होता उसका असर फ़िल्मों पर होता है या फ़िल्मों मे जो दिखाया जाता है उसका असर समाज पर होता है, लेकिन जिस तेजी से जनता “पेटी” और “खोके” का मतलब समझने लगी है वह निश्चित तौर पर फ़िल्मों का ही असर है। इस बहस में न पड़ते हुए यदि हम गहराई से भाषा के भ्रष्टाचार पर ही विचार करें तो हम पायेंगे कि बोली को सबसे अधिक प्रभावित किया है फ़िल्मों और टीवी ने, और अब यह तथाकथित भाषा केबल और डिश के जरिये गाँवों तक भी पहुँचने लगी है। हालांकि आज भी गाँव का कोई युवक जब महानगर जाता है तो उसके आसपास के युवक जिस तरह की अजीब-अजीब भाषा और शब्द बोलते हैं तो उसे लगता है कि वह फ़िनलैंड या वियतनाम पहुँच गया है। महानगरीय नवयुवकों द्वारा बोले जाने वाले कुछ शब्दों का उदाहरण- “सत्संग में चलें” का मतलब होता है दारू पार्टी, झकास मतलब बहुत बढिया, बैटरी मतलब चश्मेवाला, खंभा मतलब बीयर की पूरी बोतल... ऐसे अनेकों शब्द सुनकर आप कभी समझ नहीं सकते कि असल में क्या कहा जा रहा है।
  जनमानस पर समाचार-पत्र, फ़िल्में और टीवी गहरा असर डालते हैं। यह प्रभाव सिर्फ़ पहनावे, आचार-विचार तक ही सीमित नहीं होता, भाषा पर भी होता है। इसमें सर्वाधिक नुकसान हो रहा है उर्दू का, नुकसान तो हिन्दी का भी हो ही रहा है लेकिन अब आम बोलचाल में उर्दू शब्दों का स्थान अंग्रेजी ने ले लिया है। जैसे फ़िल्मी गीत भी धीरे-धीरे “शबनम”, “नूर” “हुस्न” से हटकर “खल्लास”, “कम्बख्त” और “कमीना” पर आ गये हैं उसी तरह संवाद भी “मुलाहिजा”, “अदब”, “तशरीफ़” से हटकर “कायको”, “चल बे”, “फ़ोकट में” पर उतर आये हैं। रही-सही कसर कम्प्यूटर के बढ़ते प्रचलन और ई-मेल ने पूरी कर दी है, जिसमें फ़िलहाल अंग्रेजी की ही बहुतायत है। भाई लोगों ने यहाँ पर भी “how are you” को “h r U” तथा “Respected Sir” को “R/sir” बना डाला है। पता नहीं इससे समय की बचत होती है या “गलत आदत” मजबूत होती है। हिन्दी में भी “ङ्” का प्रयोग लगभग समाप्त हो चला है, “ञ” तथा “ण” का प्रयोग भी खात्मे की ओर है, अब हमें “मयङ्क” या “रञ्ज”, “झण्डा” या “मन्दिर” कम ही देखने को मिलते हैं ये सभी सीधे-सीधे बिन्दु सिर पर लेकर “मयंक, रंज, झंडा और मंदिर” बन गये हैं। हमे बताया गया है कि प्रकाशन की सुविधा के कारण यह समाचार पत्रों आदि ने भी इन बीच के अक्षरों को बिन्दु में बदल दिया है, लेकिन इससे तो ये अक्षर सिर्फ़ पुस्तकों में ही रह जायेंगे। यही बात अंकों के साथ भी हो रही है, अंतरराष्ट्रीय और बाजार की ताकतों के आगे झुकते हुए “१,२,३,४,५,६,७,८,९” को “1,2,3,4,5,6,7,8,9” में बदल दिया गया है। माना कि भाषा को लचीला होना चाहिये, लेकिन लचीला होने और भ्रष्ट होने में फ़र्क होना चाहिये। ऑक्सफ़ोर्ड शब्दकोष ने भी “पराठा”, “अचार” और “लस्सी” आदि को शामिल कर लिया है, तो हमने भी “स्टेशन”, “पेन”, “ट्रेन” आदि को सरलता से अपना लिया है, लेकिन “हटेले” को आप कैसे परिभाषित करेंगे?
 अब बात करते हैं समस्या की जड़ की और उसके निवारण की। अकेले मीडिया के दुष्प्रभाव को दोषी ठहराना एकतरफ़ा होगा, अन्य दो मुख्य कारण जो तत्काल नजर आते हैं वे प्राथमिक शिक्षा से जुड़े हुए हैं। हम सभी जानते हैं कि हमारे देश में प्राथमिक स्कूलों की क्या दशा है। पहला कारण है, हिन्दी को गंभीरता से न लेना और दूसरा कारण है हिन्दी शिक्षक और शिक्षण को भी गंभीरता से न लेना। आजकल टीवी, कम्प्यूटर, वीडियो गेम के जमाने में युवा वर्ग में पठन-पाठन की रुचि में कमी आई है (सात सौ रुपये की हैरी पॉटर वह पढ लेगा, लेकिन चालीस रुपये की प्रेमचन्द की कहानियाँ पढने का समय उसके पास नहीं होगा)। हिन्दी पढने का मकसद सिर्फ़ पास होना या रट कर अच्छे अंक लाना भर होता है, उसका ज्ञान अर्जित करने या साहित्य सेवन करने से कोई लेना-देना नहीं होता। इस कारण युवाओं में हिन्दी के प्रति जो “अपनत्व” की भावना पैदा होनी चाहिये वह नहीं होती। भावनाओं को व्यक्त करते समय हिन्दी और अंग्रेजी दोनो पर समान अधिकार की चाहत में वे “न घर के रहते हैं न घाट के” और इस प्रकार “हिंग्लिश” का जन्म होता है। प्राथमिक स्कूलों में (जब बच्चे की नींव पड़ रही होती है) हिन्दी के शिक्षकों द्वारा भाषा को गंभीरता से नहीं लिया जाता। “हिन्दी तो कोई भी पढ़ा सकता है” वाली मानसिकता आज भी प्राचार्यों पर हावी है, ऐसे में जबकि आमतौर पर विज्ञान अथवा गणित विषय को उनके विशेषज्ञ ही पढ़ाते हैं, लेकिन हिन्दी की कक्षा में कोई भी आकर पढ़ाने लगता है।
  और यदि वह तथाकथित रूप से “हिन्दी” का ही शिक्षक है तब भी वह बच्चों की कॉपी जाँचते समय मात्राओं, बिन्दु, अनुस्वारों, अल्पविराम आदि पर बिलकुल ध्यान नहीं देता। बच्चे तो बच्चे हैं, वे उसी गलत-सलत लिखे शब्द या वाक्य को सही मानकर उसकी पुनरावृत्ति करते चलते हैं, धीरे-धीरे अशुद्ध लेखन उसकी आदत बन जाती है, जिसे बड़े होने के बाद सुधारना लगभग नामुमकिन होता है (कई बड़े अफ़सरों और डिग्रीधारियों को मैंने “दुध”, “लोकी”, “कुर्सि” जैसी भयानक गलतियाँ करते देखा है), यह स्थिति बदलनी चाहिये। प्रायवेट स्कूलों मे “लायब्रेरी फ़ीस” के नाम पर जो भारी-भरकम वसूली की जाती है, उसमें से कम से कम बीस प्रतिशत खर्च हिन्दी के महान साहित्यकारों की कृतियों, उपन्यासों, कहानियों के संकलन में होना चाहिये, ताकि बच्चे उन्हें एक बार तो पढ़ें और जानें कि हिन्दी साहित्य कितना समृद्ध है, वरना वे तो यही समझते रहेंगे कि शेक्सपीयर और कीट्स ही महान लेखक हैं, कालिदास, प्रेमचन्द, महादेवी वर्मा आदि तो “बस यूँ ही” हैं। बच्चों की “भाषा” की समझ विकसित होना आवश्यक है, जाहिर है कि इसके लिये शुरुआत घर से होनी चाहिये, फ़िर दायित्व है हिन्दी के शिक्षक का, वरना उस निजी चैनल के कर्मचारी को दोष देने से क्या होगा, जो प्रेमचन्द की कहानियों पर धारावाहिक बनाने के लिये “बायोडाटा और फ़ोटो लेकर प्रेमचन्द को भेजो” जैसी शर्त रख देता है। सवाल यही है खुद हमने, पिछली बार हिन्दी में पत्र कब लिखा था? या अपने बच्चे की गलत हिन्दी या अंग्रेजी पर उसे कितनी बार टोका है?

Friday, February 18, 2011

जी प्रभु जी ये बात आपकी बिलकुल सही है

जय श्री कृष्ण,
जी प्रभु जी ये बात आपकी बिलकुल सही है,धर्म जीने की कला सिखाती है,क्योंकि बहसी बनाकर इन्सान इतना खाना खा लेता है,की मरने की नौबत आ जाती है,लेकिन धर्म कहता है की संभल के खाओ ! जी प्रभु जी ये बात आपकी बिलकुल सही है,धर्म जीने की कला सिखाती है,क्योंकि बहसी बनाकर इन्सान दूसरों को इतना सताने लगता है,की अपने बारे में भूल जाता है,लेकिन धर्म कहता है की संभल जाओ नहीं तो तुम्हारे ऊपर तुम्हारा बाप बनाकर यही बुरा कर्म बैठा है ! जी प्रभु जी ये बात आपकी बिलकुल सही है,धर्म जीने की कला सिखाती है,क्योंकि बहसी बनाकर इन्सान इतना धन कमाना चाहता है,की किसी की मौत भी उसे नहीं दिखती है,लेकिन धर्म कहता है की संभल जा बेटा वरना तुझे जिन्दा ही कुत्ते नोच कर खा जायेंगे !
प्रभु जी कहने को तो और भी बहुत बातें हैं,लेकिन समयाभाव के कारण पूरा कह नहीं पा रहे हैं !कभी समय मिला तो आपको इस विषय पर एक लेख लिखकर जरुर भेजूंगा ! तबतक आप मेरी बात का बुरा मत मानियेगा,बुरा लगे तो मुर्ख समझ कर क्षमा के दीजियेगा ! आपकी भावनाओं को हम समझते हैं,इसलिए आपसे एक नम्र निवेदन करना चाहेंगे,कि धर्म को समझाने के लिए थोडा समय निकालिए ! और हम जैसे मूर्खों को भी थोडा अपने व्यस्त जीवन में जगह दीजिए !!
!! जय श्री कृष्ण !!

Wednesday, February 9, 2011

क्या आप ईश्वर की सत्ता में विश्वास रखते हैं ?

जय श्री कृष्ण,
क्या आप ईश्वर की सत्ता में विश्वास रखते हैं ?' - नरेंद्र ने मन में उठ रहे असंख विचारों को एक सारयुक्त प्रशन के रूप में रामकृष्ण परमहंस जी से पूछा |
परमहंस - हाँ ! विश्वास करता हूँ |
नरेंद्र - क्या प्रमाण है ईश्वर के असितत्व का ?
परमहंस - प्रमाण ! सबसे बड़ा प्रमाण केवल यही है नरेंद्र कि मैंने उसे देखा है | अपने इतने करीब कि इस समय तू भी मेरे इतना नजदीक नहीं खड़ा है | मैं उसे देखता हूँ, उससे बात करता हूँ...
नरेंद्र अवाक् रह गया | देखता हूँ ! बात करता हूँ ! कितनी सरलता से रामकृष्ण परमहंस जी कह रहे हैं | क्या यह सत्य है?
परमहंस - नरेंद्र! ईश्वर को देखना ही उसके असितत्व का प्रमाण है | मैना देखा है, मैं तुम्हें भी दिखा सकता हूँ | बोलो, क्या तुम देखना चाहते हो?... बोलो, क्या तुम देखोगे?
'बोलो,क्या तुम देखोगे?' - कितना स्पष्ट आह्वान था, ईश्वर से मिलने का! इतना आसान, इतना सरल... नरेंद्र ने श्री रामकृष्ण परमहंस जी के चरणों में सिर झुका दिया | सारी दौङ ख़त्म हो गई, सभी संशयों का निवारण हुआ, जब रामकृष्ण परमहंस जी ने नरेंद्र को ब्रह्मज्ञान प्रदान किया | नरेंद्र ने दिव्य दृष्टि से अपने भीतर ही ईश्वर के दर्शन किये | परमहंस जी ने देखा था, उसे भी दिखा दिया |
पूर्ण ब्रहम ज्ञान पैर के अनूठे से मस्तक में पहुचा दिया ! देख कर तब कहीं जाकर नरेंद्र ने ईश्वर के असितत्व को स्वीकारा! और ऐसा स्वीकारा कि अपना सम्पूर्ण जीवन उसी के नाम कर दिया | गुरू प्रसाद से स्वामी विवेकानंद बनकर विशव के विराट प्रांगन में प्रभु के नाम का डंका बजा दिया |
आज भी प्रभु का दर्शन संभव है, बस जरूरत है एक पूर्ण संत की जो हमें दीक्षा के समय दर्शन करवा दे |
शिष्य नरेन्द्र कि लायकी देख कर गुरु रामकृष्ण परमहंस जी ने पूर्ण ब्रहम ज्ञान पैर के अनूठे से मस्तक में पहुचा दिया !
------------एक कुए में गधा गिर गया . उसका मालिक चिल्लाता रह.गाव वालो ने सलाह दी कुए को मिटटी से भर दो, मालिक बोला नहीं मेरे गधे को जिन्दा दफ़न मत करो. फिर भी गाव वाले एक एक करके कुए में मिटटी डालते गए.जैसे ही मिटटी कुए में पड़े गधे की ऊपर गिरती गधा वो मिट ज़टक देता और मिटटी के ऊपर आता गया. अंत में कुए के मुख तक मिटटी आने पर गधा कूदकर बहार आ गया. ऐसा ही हम लोगो का है. निराकरण की और जाने की बजाय व्यर्थ की चिंता में डरते रहते है. ज्ञान को apply करो supply नहीं !!!!
श्री कृष्ण की विख्यात प्राणसखी और उपासिका राधा वृषभानु नामक गोप की पुत्री थी। राधा कृष्ण शाश्वत प्रेम का प्रतीक हैं। राधा की माता कीर्ति के लिए 'वृषभानु पत्नी' शब्द का प्रयोग किया जाता है। राधा को कृष्ण की प्रेमिका और कहीं-कहीं पत्नी के रुप में माना जाता हैं। राधा वृषभानु की पुत्री थी। पद्म पुराण ने इसे वृषभानु राजा की कन्या बताया है। यह राजा जब यज्ञ की भूमि साफ कर रहा था, इसे भूमि कन्या के रूप में राधा मिली। राजा ने अपनी कन्या मानकर इसका पालन-पोषण किया। यह भी कथा मिलती है कि विष्णु ने कृष्ण अवतार लेते समय अपने परिवार के सभी देवताओं से पृथ्वी पर अवतार लेने के लिए कहा। तभी राधा भी जो चतुर्भुज विष्णु की अर्धांगिनी और लक्ष्मी के रूप में वैकुंठलोक में निवास करती थीं, राधा बनकर पृथ्वी पर आई। ब्रह्म वैवर्त पुराण के अनुसार राधा कृष्ण की सखी थी और उनका विवाह भांडीरवन में भांडीरवट के निचे ब्रह्मा जी ने स्वयं अपने हांथों से कृष्ण के साथ सम्पन्न कराया था ! अन्यत्र राधा और कृष्ण के विवाह का और भी बहुत सारा उल्लेख मिलता है। कहते हैं, राधा अपने जन्म के समय ही वयस्क हो गई थी !! कृपा की मूरत बन ब्रिन्दाबन में पधारी !!!!!!!
अत:हे राधे रानी,हमारी आपसे बारम्बार प्रार्थना है,की हम पतितों का भी ख्याल रखना !
कृपा की ना होती जो आदत तुम्हारी, तो सूनी ही रहती अदालत तुम्हारी !

तो दीनों के दिल में जगह तुम ना पाते, तो किस दिल में होती हिफ़ाज़त तुम्हारी !

ग़रीबों की दुनियाँ है आबाद तुमसे, ग़रीबों से है बादशाहत तुम्हारी !

ना हम होते मुल्ज़िम ना तुम होते हाक़िम, ना घर-घर में होती इबादत तुम्हारी !

तुम्हारी ही उल्फ़त के दृग " बिन्दु " हैं ये, तुम्हें सौपते हैं अमानत तुम्हारी ॥



!!!!!!! राधे राधे.....राधे राधे....!!!!!!!