Thursday, March 31, 2011

ऐ दूर जाती हवाओं

ऐ दूर जाती हवाओं ,
धूप कि छटाओं..
बादलों कि गुफ्तगूं करती सभाओं
और रात-रानिओं कि महकती फिजाओं
सुनो मेरा एक सन्देश है
इस धरती पर एक देश है
जिसमे भिन्न भिन्न भेष हैं
वे बाहर से योगी और अंदर से भोगी हैं
उनमे “मैं” कि अभूतपूर्व छटा है
हृदय “काम “ से पटा है
उन्हें अपनी प्राचीनता पर गर्व है
किन्तु लुटते, लुटाते अर्वाचीनता पर सर्व हैं
अध्यात्म कि प्रधानता ऐसा वे कहते हैं
किन्तु हमेशा विज्ञान में रत रहते हैं
यह उनसे बार बार कहना ,प्रति पल ,प्रति क्षण कहना
उसका सर्वस्वा उसकी सरलता है
प्रेम और मित्रता है उसका गहना
ध्यान उसके रोम रोम में विद्यमान है
किन्तु इस बात का उसे परम अभिमान है
यह बात उससे बार बार कहना
जागें उसी क्षण हो जाता है सवेरा
बहुत हो चुका रैन बसेरा
बाहों में भरने को तुम्हे बैठा है अलौकिक
और तुम्हे तिरस्कृत करता है लौकिक
यह सन्देश मेरा तुम प्रति पल कहना !!

चंदन से कम

देश की माटी नहीं चंदन से कम ,चंदन से कम

जन्म जितनी बार भी लूँ , लूँ इसी भू पर जनम

सच कहो हर रोज़ इक त्यौहार देखा है कहीं

स्वर्ग का वैभव तो इसके सामने कुछ भी नहीं

हर दिशा उच्चारती सत्यम्-शिवम्-सुन्दरम्

देश की माटी नहीं चंदन से कम, चंदन से कम

पेड़, नदियाँ, पर्वतों तक की जहाँ हो आरती

शांति और सद्भावना की मूर्ति माँ भारती

सृष्टिकर्ता भी जहाँ पर जन्म लेते हैं स्वयम्

देश की माटी नहीं चंदन से कम, चंदन से कम

सप्तरंगी इन्द्रधनुषी सभ्यताओं से बंधे

शब्द हैं सबके अलग पर एक ही लय से बंधे

आइये हम सब मिलकर गाएँ वन्देमातरम्, वन्देमातरम् वन्देमातरम् वन्देमातरम् वन्देमातरम्

देश की माटी नहीं चंदन से कम, चंदन से कम !!

Wednesday, March 30, 2011

धर्म कि नाम से एलर्जी क्यों ?

धर्म कि नाम से एलर्जी क्यों ?

बिशेष कर आज हम युवा पिढियों को धर्म कि नाम सुनते हि चिढ होने लगजाता है एसा क्यों ? यहाँ पर यह प्रसगं इसिलिये रखरहा हुँ कि खुद भि एक युवक होने कि नाते हम युवा लोगों को समझ ना अती आवस्यक है कि सही मे धर्म कि अर्थ क्या है जिस को जान लेने के बाद धर्म से नफरत नही अपितु प्रेम होने लगेगी ,एसे तो आज धर्म कि नाम पर समाज के अन्दर बहुत कुछ होरहा है जिस के कारण आज लोगों को सहि दिसा नही मिलरहा है और यही कारण से भि हम युवा बर्ग को एसा लगने लगता है कि धर्म तो एक अन्ध विश्वाश है ,धर्म एक रुढी बाजी है इसमे कुछ नही इत्यादी ..............
एसा तभी तक होता है जब तक हम धर्म कि अर्थ को समझ नही सकेगें वास्तव मे धर्म माने होता है धाराण करने वाला सक्ती ,जो सक्ती सारे संसार को धाराण कररही है वह सक्ती क्या है ? जो सम्पूर्ण प्राणियो को धाराण किया है वह सक्ती है आत्मा ,आत्मा कि सक्ती से आज हम सब संसार मे मौजुद है उसी सक्ती को जानना हि वास्तविक धर्म को समझ ना है अगर हम भि उस सक्ती को जान लेगें तो धर्म से हमारा भि प्रेम होने लगेगी |सही धर्म जो होता है वह कभी भि मानव को तोड्ता नही वल्कि एक आत्मा कि सुत्र से सब को प्रेम कि डोर बांध लेता है |
तुझ मे राम मुझ मे राम सब मे राम समाया है ,
सब से कर लो प्रेम जगत मे कोही नही पराया है ||
जरा ईतिहास को देखें स्वामी विवेकानन्द जि पढे लिखे नव जवान युवक थे ,क्या उन कि पास सहि और गलत क्या है जान्ने कि विवेक नही थि ? लेकिन एक पढा लेखा युवक को एक साधारण सा दिखने वाले राम कृष्ण परम हंस से क्या मिला बाद मे खुद भि सन्यास बन कर के धर्म कि तत्व को देस ,बोदेसों तक घुम -घुम कर समझाया और युवा सक्तियो को आवहान किया कि भारत माता के सुपुत्रों धर्म केवल दिखावा ,केवल कर्म कान्ड तक सिमित रहना हि धर्म नही है ,धर्म तो वह है जो इन्सान को अपना वास्त्विक स्वरुप का पहिचान कराये और आप भि जाने दुसरो को जनाने के लिये मानव सेवा मे लग गये |तो आज भि हमे एसे गुरु कि तलास करना होगा जो गुरु कि ज्ञान से जीवन का वास्तविक स्वरुप (धर्म )का बोध हो सके और समाज मे आत्मिक , नैतीक ,चारित्रिक ,आर्थिक बिकास होकर के एक सम्ब्रिद्धी सिल समाज का निर्माण हो सके और आज का भटक ता हुवा हम युवा सक्ती अपने सक्ती को एकाग्र कर के राष्ट्र निर्माण मे सहयोगी बन सकें

Saturday, March 26, 2011

आत्मा" नित्य है...!

!! जय श्री कृष्ण !!
आत्मा" नित्य है...!
श्री मद भगवद गीत .अध्याय--2...श्लोक..१०..११..१२ में भगवन श्रीकृष्ण कहते है..
"हे अर्जुन...तू शोक ने करनेवालों के लिए शोक करता है और पंडितो जैसे बचन बोलता है..परन्तु पन्दितजन न मरे हो का शोक करते है और न जिन्दो का...क्योकि आत्मा नित्य है..! ऐसा कोई समय नहि था जब..मै..तू..या ये सब नहि थे..या सब आगे नहीं रहेगे..!
आगे श्लोक --१३..१४..१५ में भगवन कहते है...
..जौसे मनुष्य की कुमार..युवा और बृद्ध अवस्था होती है उसी तरह जीवात्मा की दुसरे शरीर की प्राप्ति होती है..! इस विषय में धीर पुरुष भ्रमित नहीं होता ..हे कुन्तीपुत्र अर्जुन..! तू स्व-सुख को देने वाले सर्दी-गर्मी तथा इन्द्रियों के विषय-भोग तो नाशवान और अनित्य है..! हे भारत..तू इसको सहन कर..हे पुरुष श्रेष्ठ ..दुःख-सुख को सामान समझाने वाले जिस धीर पुरुष को इन्द्रियों के विषय व्याकुल नहीं कर सकते ..वह मोक्ष के लिए योग्य होता है..!
आगे श्लोक..१६..१७..१८..१९ में भगवन कहते है...
..असत बस्तु का अस्तित्व और सत का अभाव नहीं है..! इन दोनों का तत्व ज्ञानी पुरुषो में देखा गया है..नाशरहित तो तू उसको जान ..जिस्दासे यह सारा जगत रचा गया है..!इस नाशरहित नित्य रहने वाले जीवात्मा के सब शरीर नाशवान है..! इसलिए हे अर्जुन..! तू युद्ध कर !जी इस आत्मा को मारा जाने वाला या मरा मानते है..वह दोनों को ही नहीं जानते ..क्योकि यह आत्मा न मरता है और न मारा जाता है..!
आगे श्लोक..२०..२१..२२ में भगवान् कहते है..
...यह आत्मा किसी समय भी न जन्मता है..और न मरता है..यह नित्य..अजन्मा और अविनाशी है..!जो आत्मा को अजन्मा और अविनाशी जनता है..वह किसको मारता और मरवाता है..??जैसे मनुष्य पुराने वस्त्रो कोत्याग कर नए वस्त्रो को धारण करता है..वैसे ही जीवात्मा पुराने शरीर को त्यागकर नये शरीर को प्राप्त करता है..!
आगे श्लोक..२३..२४ में भगवान कहते है...
..इसे न तो शास्त्र ही काट सकते है..न अग्नि ही जला सकती है..और इसे जल गीला नहीं कर सकता और वायु भी इसे सुखा नहीं सकती..! यह आत्मा अछेद्य है..न जलने व;अ है..न हीला होने वाला है न सुख सकता है..! यह नित्य..सबके अन्दर रहने वाला..सनातन है..!!
आत्मा के सनातन स्वरूप की भगवान श्रीकृष्ण के मुखारविंद से शब्दशः व्याख्या श्री मद भगवद गीत में उपरोक्तानुशार की गयी है..जो स्वतः स्पष्ट है..!
जो धीर पुरुष तत्वदर्शी गुरु की कृपा से इस नित्य-सनातन आत्मा का ज्ञान प्राप्त करके इसका साधन करते है..वह सुख-दुःख और जन्म-मरण के शोक से मुक्त हो जाते है..!
इसलिए हर मानव का यह पुनीत कर्तव्य है की..वह समय के तत्वदर्शी गुरु की खोज करके आत्म-ज्ञान प्राप्त करे और अपना मानव-जीवन सफल करे.!
....ॐ श्री सदगुरु चरण कमलेभ्यो नमः....!!

Saturday, March 19, 2011

भाव आ जाय तो अज्ञानी होते हुए भी मनुष्य, ज्ञानियों में अग्रगण्य हो जाता है


जय श्री कृष्ण,
एक बार की बात है, रात को लगभग १.०० बज रहे होंगे,राजा अपने महल क़ि अटारी पर टहल रहा था ! नींद नहीं आ रही थी, देखा एक फकीर एक पेड़ के निचे जोर-जोर से खर्राटें भर रहा था ! राजा को बड़ा आश्चर्य हुआ क़ि इतनी व्यवस्था होने के बाद भी मुझे नींद आने का नाम नहीं लेती ! और इसे देखो कितनी चैन कि नींद ले रहा है,जरुर इसने कोई अमूल्य संपत्ति प्राप्त कर ली है,इसीलिए इसे इतनी चैन कि नींद नसीब हो रही है ! अवश्य ही इसकी संपत्ति मेरी तुलना में कीमती है ! अत: इसकी संपत्ति का राज जानना आवश्यक है ! राजा अपने महल की अटारी से उतरा और उस फकीर के पास चल दिया ! जाकर बड़ी विनम्रता से इस नींद का राज पूछा और कोई अमूल्य धन आपको प्राप्त है, तो कृपया उस संपत्ति को हमें भी प्रदान करें प्रभो, हम आपकी शरण में हैं ! सच्ची श्रद्धा पहचान कर फकीर ने कहा भाई वो संपत्ति तो मैं तुम्हें दे दूंगा, लेकिन एक शर्त है, राजा ने कहा हमें सब मंजूर है ! फकीर ने कहा : हमारा तुम्हारा खर्चा कैसे निकलेगा ! इसलिए आज से खैनी बेचोगे तुम और इसी शहर में ! राजा ने कहा महाराज मैं इस शहर का राजा हूँ ! फकीर ने कहा तो तुम्हें किसी विशेष धन की क्या आवश्यकता है ! नहीं आप वाला कुछ विशेष है,अत: आप वाला ही मुझे चाहिए ! बोले तो ठीक है,जाओ खैनी बेच कर धन लाओ,और जो भी धन तुम लाओगे,आज से उसी से हमारा तुम्हारा गुजारा होगा ! फकीर की आज्ञानुसार राजा अपने ही राज्य में खैनी बेचता लोग तरह-तरह के ताने कशते,फिर भी बिना किसी की परवाह किए इस कार्य को अंजाम देता रहा ! घरवाले भी आये,बहुत मनाया,राजा नहीं माना ! १० वर्ष निकल गये,एक दिन राजा ने फकीर से कहा: अब तो मैं उस गुप्त धन को पाने (संभालने) लायक हो गया हूँ,अब तो आप उसे हमें प्रदान करें ! फकीर ने कहा: ठीक है एक काम करो राज्य के सभी नागरिकों से पूछ कर आओ कि तुम्हारे व्यवहार से सभी संतुष्ट हैं या नहीं ! राजा जब लौट के आया तो फकीर ने पूछा: क्या हुआ ? राजा ने कहा : गुरुदेव ! मैंने सबको पूछ लिया है. सब संतुष्ट हैं,हाँ एक आदमी नहीं था, घर पे, तो मैंने अपने पुत्र को कह दिया है कि जैसे ही आवे उसे खूब धन देना ताकि वो संतुष्ट हो जावे ! फकीर ने कहा : खैनी बेचने जाओ अभी तुम उस धन को संभालने के लायक नहीं हुए हो ! राजा खैनी बेचता रहा ! पुन: ५ वर्षों के बाद वही प्रश्न किया ! फकीर ने फिर वही करने को कहा,राजा ने जबाब दिया गुरुवर,सारी दुनियां अपने आप में समाहित नजर आती है,कोई पराया नजर नहीं आता,किससे पूछूं कि संतुष्ट हो या नहीं ! महाराज अब तो अपने आप में संतुष्टि नजर आती है ! पूछने कि आवश्यकता ही नहीं है ! फकीर का ह्रदय स्नेह और प्रेम से सराबोर हो गया ! और सम्पूर्ण ज्ञान का छलकत सागर राजा के ह्रदय में उड़ेल दिया और राजा के जीवन को धन्य बना दिया !
!! वह राजा शिबली और फकीर जुनैद थे !!
अभिप्राय यह है कि जबतक हमारे अन्दर मैं,मेरा "" यह भाव विद्यमान है तबतक वो ज्ञान पाकर भी अज्ञानी हैं ! जैसे ध्रुव ! बाद में जब सत्संग मिला तो वही ध्रुव - ध्रुव पद को प्राप्त हो गये !!
और भाव आ जाय तो अज्ञानी होते हुए भी मनुष्य, ज्ञानियों में अग्रगण्य हो जाता है :-- जैसे प्रह्लाद !!
!! जय श्री कृष्ण !!

॥ हरि ॐ तत सत ॥


जय श्री कृष्ण,

॥ अहंकार क्या है? ॥

भगवान श्री कृष्ण कहते हैं....

मम योनिर्महद्ब्रह्म तस्मिन्गर्भं दधाम्यहम्‌ ।
सम्भवः सर्वभूतानां ततो भवति भारत ॥
(गीता १४/३)
मेरी यह आठ तत्वों वाली जड़ प्रकृति (जल, अग्नि, वायु, पृथ्वी, आकाश, मन,
बुद्धि और अहंकार) ही समस्त वस्तुओं को उत्पन्न करने वाली माता है और मैं ही
ब्रह्म रूप में चेतन-रूपी बीज को स्थापित करता हूँ, इस जड़-चेतन के संयोग से ही
सभी चर-अचर प्राणीयों का जन्म सम्भव होता है।

संसार प्रकृति के आठ जड़ तत्वों (पाँच स्थूल तत्व और तीन दिव्य तत्व) से मिलकर
बना है।

स्थूल तत्व = जल, अग्नि, वायु, पृथ्वी और आकाश।
दिव्य तत्व = बुद्धि, मन और अहंकार।

हमारे स्वयं के दो रूप होते हैं एक बाहरी दिखावटी रूप जिसे स्थूल शरीर कहते हैं
और दूसरा आन्तरिक वास्तविक दिव्य रूप जिसे जीव कहते हैं। बाहरी शरीर रूप स्थूल
तत्वों के द्वारा निर्मित होता है और हमारा आन्तरिक जीव रूप दिव्य तत्वों के
द्वारा निर्मित होता है।

जीव को अपना आध्यात्मिक उत्थान करने के लिये सबसे पहले बुद्धि तत्व के द्वारा
अहंकार तत्व को जानना होता है, अहंकार तत्व है जो शरीर में रहते हुए कभी समाप्त
नहीं हो सकता है।

(अहंकार = अहं + आकार = स्वयं का रूप) स्वयं के रूप को ही अहंकार कहते हैं।
शरीर को अपना वास्तविक रूप समझना मिथ्या अहंकार कहलाता है और जीव रूप को अपना
समझना शाश्वत अहंकार कहलाता है। प्रत्येक जीव को अपने भाव के द्वारा मिथ्या
अहंकार को शाश्वत अहंकार में परिवर्तित करना होता है।

जब तक मनुष्य बुद्धि के द्वारा अपनी पहिचान स्थूल शरीर रूप में करता है और शरीर
को ही कर्ता समझता है तब वह मिथ्या अहंकार (शरीर को स्वयं समझना) से ग्रसित
रहता है तब तक सभी मनुष्य अज्ञान में ही रहते है। इस प्रकार अज्ञान से आवृत
होने के कारण तब तक सभी जीव अचेत अवस्था (बेहोशी की हालत) में ही रहते हैं
उन्हे मालूम ही नही होता है कि वह क्या कर रहें हैं और उन्हे क्या करना चाहिये।


जब कोई मनुष्य भगवान की कृपा से निरन्तर किसी तत्वदर्शी संत के सम्पर्क में
रहता है तब वह मनुष्य सचेत अवस्था (होश की हालत) में आने लगता है, तब वह अपनी
पहिचान जीव रूप से करने लगता है तब उसका मिथ्या अहंकार मिटने लगता है और शाश्वत
अहंकार (जीव स्वरूप को स्वयं समझना) में परिवर्तित होने लगता है यहीं से उसका
अज्ञान दूर होने लगता है।

इसका अर्थ है कि हमारे दोनों स्वरूप ज़ड़ ही हैं। जब पूर्ण चेतन स्वरूप
परमात्मा का आंशिक चेतन अंश आत्मा जब जीव से संयुक्त होता है तो दोनों रूपों
में चेतनता आ जाती है जिससे ज़ड़ प्रकृति भी चेतन हो जाती है इस प्रकार ज़ड़ और
चेतन का संयोग ही सृष्टि कहलाती है।

भगवान की यह दो प्रमुख शक्तियाँ एक ज़ड़ शक्ति जिसमें जीव भी शामिल है "अपरा
शक्ति" कहते हैं, दूसरी चेतन शक्ति यानि आत्मा "परा शक्ति" कहते हैं। यही अपरा
और परा शक्ति के संयोग से ही सम्पूर्ण सृष्टि का संचालन सुचारु रूप से चलता
रहता है।

मिथ्या अहंकार के कारण ही जीव बार-बार जन्म और मृत्यु को प्राप्त होता रहता है,
मिथ्या अंहकार का मिटना ही मुक्ति है।

॥ हरि ॐ तत सत ॥

॥ अहंकार क्या है? ॥


जय श्री कृष्ण,

॥ अहंकार क्या है? ॥

भगवान श्री कृष्ण कहते हैं....

मम योनिर्महद्ब्रह्म तस्मिन्गर्भं दधाम्यहम्‌ ।
सम्भवः सर्वभूतानां ततो भवति भारत ॥
(गीता १४/३)
मेरी यह आठ तत्वों वाली जड़ प्रकृति (जल, अग्नि, वायु, पृथ्वी, आकाश, मन,
बुद्धि और अहंकार) ही समस्त वस्तुओं को उत्पन्न करने वाली माता है और मैं ही
ब्रह्म रूप में चेतन-रूपी बीज को स्थापित करता हूँ, इस जड़-चेतन के संयोग से ही
सभी चर-अचर प्राणीयों का जन्म सम्भव होता है।

संसार प्रकृति के आठ जड़ तत्वों (पाँच स्थूल तत्व और तीन दिव्य तत्व) से मिलकर
बना है।

स्थूल तत्व = जल, अग्नि, वायु, पृथ्वी और आकाश।
दिव्य तत्व = बुद्धि, मन और अहंकार।

हमारे स्वयं के दो रूप होते हैं एक बाहरी दिखावटी रूप जिसे स्थूल शरीर कहते हैं
और दूसरा आन्तरिक वास्तविक दिव्य रूप जिसे जीव कहते हैं। बाहरी शरीर रूप स्थूल
तत्वों के द्वारा निर्मित होता है और हमारा आन्तरिक जीव रूप दिव्य तत्वों के
द्वारा निर्मित होता है।

जीव को अपना आध्यात्मिक उत्थान करने के लिये सबसे पहले बुद्धि तत्व के द्वारा
अहंकार तत्व को जानना होता है, अहंकार तत्व है जो शरीर में रहते हुए कभी समाप्त
नहीं हो सकता है।

(अहंकार = अहं + आकार = स्वयं का रूप) स्वयं के रूप को ही अहंकार कहते हैं।
शरीर को अपना वास्तविक रूप समझना मिथ्या अहंकार कहलाता है और जीव रूप को अपना
समझना शाश्वत अहंकार कहलाता है। प्रत्येक जीव को अपने भाव के द्वारा मिथ्या
अहंकार को शाश्वत अहंकार में परिवर्तित करना होता है।

जब तक मनुष्य बुद्धि के द्वारा अपनी पहिचान स्थूल शरीर रूप में करता है और शरीर
को ही कर्ता समझता है तब वह मिथ्या अहंकार (शरीर को स्वयं समझना) से ग्रसित
रहता है तब तक सभी मनुष्य अज्ञान में ही रहते है। इस प्रकार अज्ञान से आवृत
होने के कारण तब तक सभी जीव अचेत अवस्था (बेहोशी की हालत) में ही रहते हैं
उन्हे मालूम ही नही होता है कि वह क्या कर रहें हैं और उन्हे क्या करना चाहिये।


जब कोई मनुष्य भगवान की कृपा से निरन्तर किसी तत्वदर्शी संत के सम्पर्क में
रहता है तब वह मनुष्य सचेत अवस्था (होश की हालत) में आने लगता है, तब वह अपनी
पहिचान जीव रूप से करने लगता है तब उसका मिथ्या अहंकार मिटने लगता है और शाश्वत
अहंकार (जीव स्वरूप को स्वयं समझना) में परिवर्तित होने लगता है यहीं से उसका
अज्ञान दूर होने लगता है।

इसका अर्थ है कि हमारे दोनों स्वरूप ज़ड़ ही हैं। जब पूर्ण चेतन स्वरूप
परमात्मा का आंशिक चेतन अंश आत्मा जब जीव से संयुक्त होता है तो दोनों रूपों
में चेतनता आ जाती है जिससे ज़ड़ प्रकृति भी चेतन हो जाती है इस प्रकार ज़ड़ और
चेतन का संयोग ही सृष्टि कहलाती है।

भगवान की यह दो प्रमुख शक्तियाँ एक ज़ड़ शक्ति जिसमें जीव भी शामिल है "अपरा
शक्ति" कहते हैं, दूसरी चेतन शक्ति यानि आत्मा "परा शक्ति" कहते हैं। यही अपरा
और परा शक्ति के संयोग से ही सम्पूर्ण सृष्टि का संचालन सुचारु रूप से चलता
रहता है।

मिथ्या अहंकार के कारण ही जीव बार-बार जन्म और मृत्यु को प्राप्त होता रहता है,
मिथ्या अंहकार का मिटना ही मुक्ति है।

॥ हरि ॐ तत सत ॥

॥ अहंकार क्या है? ॥


जय श्री कृष्ण,

॥ अहंकार क्या है? ॥

भगवान श्री कृष्ण कहते हैं....

मम योनिर्महद्ब्रह्म तस्मिन्गर्भं दधाम्यहम्‌ ।
सम्भवः सर्वभूतानां ततो भवति भारत ॥
(गीता १४/३)
मेरी यह आठ तत्वों वाली जड़ प्रकृति (जल, अग्नि, वायु, पृथ्वी, आकाश, मन,
बुद्धि और अहंकार) ही समस्त वस्तुओं को उत्पन्न करने वाली माता है और मैं ही
ब्रह्म रूप में चेतन-रूपी बीज को स्थापित करता हूँ, इस जड़-चेतन के संयोग से ही
सभी चर-अचर प्राणीयों का जन्म सम्भव होता है।

संसार प्रकृति के आठ जड़ तत्वों (पाँच स्थूल तत्व और तीन दिव्य तत्व) से मिलकर
बना है।

स्थूल तत्व = जल, अग्नि, वायु, पृथ्वी और आकाश।
दिव्य तत्व = बुद्धि, मन और अहंकार।

हमारे स्वयं के दो रूप होते हैं एक बाहरी दिखावटी रूप जिसे स्थूल शरीर कहते हैं
और दूसरा आन्तरिक वास्तविक दिव्य रूप जिसे जीव कहते हैं। बाहरी शरीर रूप स्थूल
तत्वों के द्वारा निर्मित होता है और हमारा आन्तरिक जीव रूप दिव्य तत्वों के
द्वारा निर्मित होता है।

जीव को अपना आध्यात्मिक उत्थान करने के लिये सबसे पहले बुद्धि तत्व के द्वारा
अहंकार तत्व को जानना होता है, अहंकार तत्व है जो शरीर में रहते हुए कभी समाप्त
नहीं हो सकता है।

(अहंकार = अहं + आकार = स्वयं का रूप) स्वयं के रूप को ही अहंकार कहते हैं।
शरीर को अपना वास्तविक रूप समझना मिथ्या अहंकार कहलाता है और जीव रूप को अपना
समझना शाश्वत अहंकार कहलाता है। प्रत्येक जीव को अपने भाव के द्वारा मिथ्या
अहंकार को शाश्वत अहंकार में परिवर्तित करना होता है।

जब तक मनुष्य बुद्धि के द्वारा अपनी पहिचान स्थूल शरीर रूप में करता है और शरीर
को ही कर्ता समझता है तब वह मिथ्या अहंकार (शरीर को स्वयं समझना) से ग्रसित
रहता है तब तक सभी मनुष्य अज्ञान में ही रहते है। इस प्रकार अज्ञान से आवृत
होने के कारण तब तक सभी जीव अचेत अवस्था (बेहोशी की हालत) में ही रहते हैं
उन्हे मालूम ही नही होता है कि वह क्या कर रहें हैं और उन्हे क्या करना चाहिये।


जब कोई मनुष्य भगवान की कृपा से निरन्तर किसी तत्वदर्शी संत के सम्पर्क में
रहता है तब वह मनुष्य सचेत अवस्था (होश की हालत) में आने लगता है, तब वह अपनी
पहिचान जीव रूप से करने लगता है तब उसका मिथ्या अहंकार मिटने लगता है और शाश्वत
अहंकार (जीव स्वरूप को स्वयं समझना) में परिवर्तित होने लगता है यहीं से उसका
अज्ञान दूर होने लगता है।

इसका अर्थ है कि हमारे दोनों स्वरूप ज़ड़ ही हैं। जब पूर्ण चेतन स्वरूप
परमात्मा का आंशिक चेतन अंश आत्मा जब जीव से संयुक्त होता है तो दोनों रूपों
में चेतनता आ जाती है जिससे ज़ड़ प्रकृति भी चेतन हो जाती है इस प्रकार ज़ड़ और
चेतन का संयोग ही सृष्टि कहलाती है।

भगवान की यह दो प्रमुख शक्तियाँ एक ज़ड़ शक्ति जिसमें जीव भी शामिल है "अपरा
शक्ति" कहते हैं, दूसरी चेतन शक्ति यानि आत्मा "परा शक्ति" कहते हैं। यही अपरा
और परा शक्ति के संयोग से ही सम्पूर्ण सृष्टि का संचालन सुचारु रूप से चलता
रहता है।

मिथ्या अहंकार के कारण ही जीव बार-बार जन्म और मृत्यु को प्राप्त होता रहता है,
मिथ्या अंहकार का मिटना ही मुक्ति है।

॥ हरि ॐ तत सत ॥

॥ अहंकार क्या है? ॥


जय श्री कृष्ण,

॥ अहंकार क्या है? ॥

भगवान श्री कृष्ण कहते हैं....

मम योनिर्महद्ब्रह्म तस्मिन्गर्भं दधाम्यहम्‌ ।
सम्भवः सर्वभूतानां ततो भवति भारत ॥
(गीता १४/३)
मेरी यह आठ तत्वों वाली जड़ प्रकृति (जल, अग्नि, वायु, पृथ्वी, आकाश, मन,
बुद्धि और अहंकार) ही समस्त वस्तुओं को उत्पन्न करने वाली माता है और मैं ही
ब्रह्म रूप में चेतन-रूपी बीज को स्थापित करता हूँ, इस जड़-चेतन के संयोग से ही
सभी चर-अचर प्राणीयों का जन्म सम्भव होता है।

संसार प्रकृति के आठ जड़ तत्वों (पाँच स्थूल तत्व और तीन दिव्य तत्व) से मिलकर
बना है।

स्थूल तत्व = जल, अग्नि, वायु, पृथ्वी और आकाश।
दिव्य तत्व = बुद्धि, मन और अहंकार।

हमारे स्वयं के दो रूप होते हैं एक बाहरी दिखावटी रूप जिसे स्थूल शरीर कहते हैं
और दूसरा आन्तरिक वास्तविक दिव्य रूप जिसे जीव कहते हैं। बाहरी शरीर रूप स्थूल
तत्वों के द्वारा निर्मित होता है और हमारा आन्तरिक जीव रूप दिव्य तत्वों के
द्वारा निर्मित होता है।

जीव को अपना आध्यात्मिक उत्थान करने के लिये सबसे पहले बुद्धि तत्व के द्वारा
अहंकार तत्व को जानना होता है, अहंकार तत्व है जो शरीर में रहते हुए कभी समाप्त
नहीं हो सकता है।

(अहंकार = अहं + आकार = स्वयं का रूप) स्वयं के रूप को ही अहंकार कहते हैं।
शरीर को अपना वास्तविक रूप समझना मिथ्या अहंकार कहलाता है और जीव रूप को अपना
समझना शाश्वत अहंकार कहलाता है। प्रत्येक जीव को अपने भाव के द्वारा मिथ्या
अहंकार को शाश्वत अहंकार में परिवर्तित करना होता है।

जब तक मनुष्य बुद्धि के द्वारा अपनी पहिचान स्थूल शरीर रूप में करता है और शरीर
को ही कर्ता समझता है तब वह मिथ्या अहंकार (शरीर को स्वयं समझना) से ग्रसित
रहता है तब तक सभी मनुष्य अज्ञान में ही रहते है। इस प्रकार अज्ञान से आवृत
होने के कारण तब तक सभी जीव अचेत अवस्था (बेहोशी की हालत) में ही रहते हैं
उन्हे मालूम ही नही होता है कि वह क्या कर रहें हैं और उन्हे क्या करना चाहिये।


जब कोई मनुष्य भगवान की कृपा से निरन्तर किसी तत्वदर्शी संत के सम्पर्क में
रहता है तब वह मनुष्य सचेत अवस्था (होश की हालत) में आने लगता है, तब वह अपनी
पहिचान जीव रूप से करने लगता है तब उसका मिथ्या अहंकार मिटने लगता है और शाश्वत
अहंकार (जीव स्वरूप को स्वयं समझना) में परिवर्तित होने लगता है यहीं से उसका
अज्ञान दूर होने लगता है।

इसका अर्थ है कि हमारे दोनों स्वरूप ज़ड़ ही हैं। जब पूर्ण चेतन स्वरूप
परमात्मा का आंशिक चेतन अंश आत्मा जब जीव से संयुक्त होता है तो दोनों रूपों
में चेतनता आ जाती है जिससे ज़ड़ प्रकृति भी चेतन हो जाती है इस प्रकार ज़ड़ और
चेतन का संयोग ही सृष्टि कहलाती है।

भगवान की यह दो प्रमुख शक्तियाँ एक ज़ड़ शक्ति जिसमें जीव भी शामिल है "अपरा
शक्ति" कहते हैं, दूसरी चेतन शक्ति यानि आत्मा "परा शक्ति" कहते हैं। यही अपरा
और परा शक्ति के संयोग से ही सम्पूर्ण सृष्टि का संचालन सुचारु रूप से चलता
रहता है।

मिथ्या अहंकार के कारण ही जीव बार-बार जन्म और मृत्यु को प्राप्त होता रहता है,
मिथ्या अंहकार का मिटना ही मुक्ति है।

॥ हरि ॐ तत सत ॥