Wednesday, September 14, 2011

एकाग्रता

एकाग्रता के अभ्यास के साथ-साथ विवेक जगाते रहो। इतना कर लिया, आखिर क्या? इतना सारा समय इन्द्रियजगत में, मन की कल्पनाओं में चला जाये तो मनुष्य जीवन का अनर्थ हुआ। मनुष्य का मतलब क्या? मनसा सीव्यति इति मनुष्यः। मन से जो सी ले, सम्बन्ध जोड़ ले वह मनुष्य।' यह चद्दर हमारी... यह थाली हमारी... यह पैन्ट हमारी.... यह टाई हमारी....।' अरे ! टाई को अपनी कह सकते हो तो उस परमात्मा को अपना बनाने में तुम्हारा क्या जाता है? वास्तव में परमात्मा के सिवाय और कुछ तुम्हारा है ही नहीं। लेकिन चेतन से उत्पन्न होने के कारण मन में ऐसा कुछ चमत्कार है कि वह जैसा सोचता है वैसा सत्य ही भासता है। सत्यस्वरूप से ही मन फुरता है। आप जैसा सोचते हैं वैसा सत्य भासने लगता है। आप सोचें कि जगत में दुःख है, पीड़ा है, मुसीबत है तो जगत बिल्कुल ऐसा ही लगेगा। भोग की नज़र से देखेंगे तो जगत भोगने के लिए है ऐसा लगेगा। लेकिन संसार के स्वामी को पहचानने के लिए विचित्र परिस्थितियों से पसार होकर अंतिम लक्ष्य तक पहुँचाने की पाठशाला की नजर से संसार को देखेंगे तो उसमें आप उत्तीर्ण होते जायेंगे।
आपसे कोई ऊँचा दिखता है तो आप सिकुड़ मत जाना। कोई आपसे ज्ञान में, समझ में छोटा दिखता है तो अकड़ मत जाना। वह छोटा विद्यार्थी है। पढ़ते-पढ़ते, ठोकर खाते-खाते वह भी एक दिन पास हो जायेगा। जो उँचे पहुँचा हुआ है वहाँ एक दिन आप भी पहुँच जाओगे। बड़े को देखकर ईर्ष्या और छोटे को देखकर घृणा नहीं होना चाहिए। जो बड़े में है वही का छोटे में छुपा है और मुझमें भी वही का वही है।
ऐसा कोई बीज नहीं जिसमें अनन्त वृक्ष न छिपे हों। जरा-से-बीज में लाखों करोड़ों वृक्षों की संभावनाएँ सुषुप्त पड़ी होती हैं। एक जीव में अनन्त जीवों की परंपरा निहित है।
मूल को छोड़ा और डाली पत्तों को पकड़ा तो संसार की अनन्तता में घसीटे जाओगे। डाली-पत्तों को छोड़कर मूल की ओर जाओगे तो अनेकता में एकता को पाओगे। अपने मूल की ओर सरकने के लिए शिवोऽहम्... सोऽहम्.... अहं ब्रह्मास्मि..... आदि का चिन्तन बड़ा सहायक है