Saturday, April 30, 2011

“Determination with true mind becomes infallible power.”

(The Art of Listening to Satsang)

There is a question. A gentleman says, while listening to satsang (spiritual discourses) people are also writing the divine name (e.g. Ram Ram) and some are also doing japa (repetition of divine name) with beads. I wonder how they are able to do two things simultaneously. Is there greater gain in doing so or not?

Answer: If while sitting to listen to a discourse, and at the same time you are also doing japa (divine name repetition), then will you be able to listen? One cannot do two things well at the same time. Attention will only be in on one thing. There is nothing wrong if it happens automatically, i.e. on its own the divine name repetition (japa) starts. But to listen, to hear attentively where the attention is only on listening continuously with no gaps or intervals (niranter), listening single-pointedly, listening with an unbroken flow like the continuous pouring of oil (tail dharaavat) is an art. You have asked me this question and reminded me of things, therefore I am telling you. Yes there is a definite art of listening. If you listen in that manner, you will have immense gains. After studying for many years, one person said I have finally learned to study. He said look at the Teacher (Guru) with great attention, watch the eyes and listen. Doing so, the essence of what is being said will get absorbed in.

Many ask a question and you can see there is no desire to listen. At the very minimum after asking do not be stuck in your own thoughts. You will be either able to listen to satsang or do japa. Not both. Pay attention, if you pay attention, you will be only able to hear one thing. You should not be able to hear the vigor of the Gangaji's flow in the back ground or the winds blowing or anything else. Your mind will not be on anything else. If you pay attention to your breath or anything else, how can you truly listen attentively? Do you not get time to write the Divine name (Ram naam) in your homes? It seems that you are here and doing nothing else. Might as well be busy in writing the Divine name, thinking this time is useless, extra and rather dispensable (phaaltu). Deep within, you are of the impression that this time is simply being wasted. If you have this attitude how can you gain anything from satsang?

Sincere listeners even know what is going to come next in these discourses because they have been listening for many years and have been very attentive. New persons cannot grasp quickly, but listening attentively he is able to gain knowledge very quickly. Therefore whatever work you are doing, do it by engaging fully in it. If a man does a single task attentively and does that work alone, then he will acquire the same discipline in his spiritual practices (sadhana), and when he meditates then too it will be single-pointed, and his mind will very quickly become engaged in God. Whatever work you do, give attention to that alone. That way your habits will improve and whatever you do will be with perfect concentration and interest. It is pride that often makes one say – `I cannot do it.' A life time goes by and I have often seen that mothers have not even learned how to serve food, let alone cooking. They over serve and end up with over-weight children. Therefore it is my sincere request to you to be attentive to whatever you do. Any work – whether it is reading or listening, or talking, or writing, or any other task.

Many complain that we cannot do this or that. Here try this simple exercise and see for yourself how quickly you can engage your mind. Sit silently, and with only your mind (i.e. no use of beads `mala', no loud counting etc.), do japa (divine name repetition) silently "Raam Raam Raam Raam" , until you do one mala (108 times). Counting silently only within. If the mind wanders in between, stop and start all over again. Try to see if you can do just one mala. (i.e. 108 times).

Thursday, April 28, 2011

इन्टरनेट की बोली

जीवन जीने की कला इन्टरनेट की बोली द्वारा :-

जब हम नियम करते है तब हमारा चित ऑनलाइन रहता है ,
परन्तु जब नियम ख़तम हो जाता है तब हमारा चित ऑफलाइन हो जाता है .
लेकिन हम साधकों को चाहिए की हिमारा चित हमेशा इंविसिबल रहे,
इसका एक मात्र कारण है की सतत संसार का चिंतन एवं संसारी लोगों से व्यवहार,
जिससे हमारी अधिकतर साधना कम हो जाती है ,
लेकिन हम साधकों को चाहिए की हम इंविसिबल ही रहे ,मतलब ..........
..'अपने चित के अन्दर अपने गुरु के प्रति भक्ति भाव रखते हुए........
संसार को इस प्रकार चलाना की उसे पता ही नहीं चले की हम अन्दर से उस परम देव........
. अंतर आत्मा.. परमात्मा से जुड़े है परन्तु बहार से सम है , और ऐसा करने से
ये संसारी लोग हमे उससे तोड़ने की कोशिश नहीं करेंगे , इसलिए हम इंविसिबल रहकर
उस परम सुख को पाकर आत्मसाक्षात्कार कर सकते है .......हरी ॐ


ऑनलाइन मतलब- भक्ति भाव में रहना
ऑफलाइन मतलब - भक्ति भाव से निकल कर संसार का चिंतन करना
इंविसिबल मतलब - अन्दर से प्रभु से जुड़ना और बाहर से सम रहना

Tuesday, April 26, 2011

फैसला आपके हाथ

!! जय श्री कृष्ण !!
बचे-खुचे कौरवों के नाजायज औलाद हैं, ये सब, और उनके खून में भी गोरों का खून मिश्रित हो गया है ! वरना ऐसा कभी न कहते ! अपने कौम के लिए एक मुसलमान धर्म के नाम पर पाकिस्तान से हिंदुस्तान आकर एक हिन्दू धर्म प्रचारक को मरने कि क्षमता रखता है ! एक ईसाई अपने धर्म के विस्तार के लिए अपना सर्वस्व लुटा कर एक हिन्दू को खरीद लेने कि क्षमता रखता है ! लेकिन आज का हिन्दू कहा जाने वाला एक नवयुवक पैसों के लिए अपने धर्म को बेच देने को तैयार है ! एक ब्राह्मण वेद मन्त्रों के माध्यम से अनुष्ठान करवा कर किसी के जीवन में परिवर्तन करवा दे तो ये पाखंड है ! और एक मदर टेरेशा, किसी स्त्री का स्पर्श करे और संयोग से उसके गर्भाशय का कैंसर ठीक हो जाय तो ये महान चमत्कार है ! और उनके कौम उनके देशवासियों कि क्या, भारत सरकार भी उसको संताधिराज या (महामनीषी) कि उपाधि से समलंकृत करती है ! ये केवल भारत सरकार ही कर सकती है ! क्योंकि यहाँ हिन्दू का मतलब जानवर समझा जाता है, यहाँ हिन्दू का मतलब गुलाम समझा जाता है ! लेकिन इनको क्या मालूम कि, जो हिन्दू ----- अतिथि देवो भव:! कह कर सम्मान करना जानते हैं, वही हिन्दू पूरी दुनियां पर अकेले ही भारी पड़ते हैं ! सच्चाई और इमानदारी का पाठ पढ़ने-पढ़ाने वाले हिन्दुओं का जगद गुरु (कृष्णं वन्दे जगद्गुरुम) दुनियां का नंबर वन छलिया है ! हम जब अपने पर उतर जाएँ तो, मिनटों में पूरी दुनियां को मुट्ठी में करना जानते हैं ! लेकिन पहले तो हमें इन मीर जाफर के बंसजों से, जो नेता बनकर, हमारे ही वोटों से हमीं पर हुकूमत कर रहे हैं ! तथा हमारे ही धन पर राज करते हुए हमीं को आँख दिखा रहे हैं ! जहाँ कोई कट्टर हिन्दू इनके सामने खड़ा होता है, तो जैसे इनकी माँ मर जाती है ! किसी को बर्दास्त ही नहीं कर सकते ! इनको मिटाना है ! कांची कामकोटी शंकराचार्य जी को बदनाम किया,क्योंकि वो गरीब हिन्दू जो क्रिश्चन बन गये थे, उनको हिन्दू बनने का काम कर रहे थे ! आशाराम जी को बदनाम किया और अभी-भी करने का प्रयत्न कर रहे हैं, क्योंकि वो हिंदुत्व का प्रचार करते हैं ! मंदिरों को मिटने का प्रयत्न किया जा रहा है, क्योंकि यहीं से धर्म शुरू होता है ! मंदिरों के धन को लुटा जा रहा है, क्योंकि ये भारत कि अचल संपत्ति है ! जिस दिन भारत के राजाओं का धन कम पड़ जाता है, प्रजापालन के लिए उस मंदिरों से भारत के प्रजा का पालन किया जाता है ! लेकिन इस स्विस बैंक में रखे नेताओं का धन तो चाहे भारत कि प्रजा भूख से तड़प कर मर भी जाय तो नहीं आएगी ! तो आप बताईये कि मंदिरों में रखा धन हमारे लिए उपयोगी है, अथवा इन नेताओं द्वारा विदेशी बैंकों में रखा धन ? और एक बात, इन क्रिश्चानों (ईसाईयों) का दावा है कि इन्होंने १०००.वर्ष के अन्दर पुरे यूरोप, फ़्रांस और जर्मनी को ईसाई बना दिया ! अब हिन्दू और मुसलमान बाकि है ! तो पहले हिन्दुओं को ईसाई बनाने के लिए मुसलमानों का उपयोग करें ! और फिर मुसलमानों को तो यूँ ही गर्दन दबा के ईसाई बना देंगे ! और इसके लिए चर्च जो यहाँ बन रहे हैं, वो हमारी तरह धार्मिक स्थल नहीं है, बल्कि ईसाई मिशनरी का आफिस है ! और इसी के अधीन भारत सरकार काम कर रही है, अगर ऐसा नहीं होता तो शंकराचार्य के जमानत कि अर्जी नामंजूर नहीं होती ! नामंजूर इसलिए हुई, क्योंकि उनसे ईसाई मिशनरी का सीधा टक्कर हो गया ! अब इस ईसाईयों के पतन को रोकना था ! क्योंकि ईसाई बने हिन्दुओं को वो सब कुछ शंकराचार्य द्वारा चलाये जा रहे अभियान के माध्यम से फ्री में मिल रहा था, जो ईसाईयों द्वारा दिया जाता था ! अब ईसाई मिशनरी के सामने चुनौती बनकर खड़े इन शंकराचार्य के दूतों को कैसे हटाया जाय ! तो निष्कर्ष निकला कि इनको इतना बदनाम कर दो कि आनेवाला डोनेशन न मिले, जिससे इनका मिशन चलता है ! आपको मालूम है, देश और विदेशों से आनेवाले दान कितने होते हैं, शंकराचार्य जी के पास हर वर्ष ५ हजार करोड़ डालर ! जिससे यह मिशन चलता था ! इन ईसाईयों ने सोंचा कि इनके दान को ही नहीं बल्कि इनको ही मिटा दो ! तो सोनिया को चर्चों द्वारा धमकी भरा सन्देश दिया गया, और लग गयी इस नेक काम में ईसाईयों कि एजेंट, हमारे देश का भविष्य बनाने वाली, यहाँ के मर्दों को अपने इशारों पर नचाने वाली, राजमाता कहलाने का ख्वाब देखने वाली ! इंगलैंड कि महारानी कि तरह भारत कि महारानी बनाने का सपना सजाने वाली, एक विदेशी विधवा ! जो विधवा शब्द को नहीं जानती, वो देश को चलने चली ! और बिच में ही ईसाई मिशनरी के इशारे पर नाचते हुए ! शंकराचार्य जी के जमानत को जप्त करवा दिया ! शिबू शोरेन जो हजारो मुशलमानों को जिन्दा जला कर जीवित है, घूम रहा है ! इसकी सरकार उसका कुछ नहीं बिगाड़ सकती, क्योंकि उसके एक इशारे पर इस सरकार कि नीव हिल जाएगी ! लेकिन हिन्दू उसके गुलाम हैं, जैसे चाहे घुमा सकती है ! प्रमाण --- सोनिया को चर्च ने घुमाया, इसने मायावती को घुमाया, मायावती ने सुप्रीम कोर्ट को घुमाया ! और हो गयी शंकराचार्य जी कि जमानत जप्त, और सारे हिन्दू देखते ही रह गये ! कुछ भी उखाड़ नहीं पाए ऐसे मुद्दे ऐसे अपराध दिखा दिए गए कि सबकी बोलती बंद हो गयी ! लेकिन किसी ने यह नहीं सोंचा, कि इतने ऊँचे आसन पर बैठने वाला कोई साधारण पुरुष नहीं है, बल्कि भारत में उसे दैवी शक्ति से सम्पन्न माना जाता है ! भगवान का प्रतिनिधि माना जाता है,उन भगवान के प्रतिनिधि का अपमान अर्थात भगवान के अपमान जैसा अपमान सहन कर गये, क्यों ? क्योंकि इन ईसाईयों ने कहा, इन ईसाईयों कि प्रतिनिधियों और चर्च के प्रतिनिधियों के तलवे चाटने वाले इन नेताओं के इशारे से केवल अन्याय करने वाले इस कोर्ट के फैसले को सहजता से स्वीकार कर लिया किसी ने कोई विरोध नहीं किया ! इन ईसाईयों का इतिहास हमारे देश में रहा है, कि जिन राजाओं ने इनको आश्रय दिया, इन्होंने उन्हीं को लुटा ! झूठ इनके रग-रग में समाया है, सोते हुए स्वप्न में भी जो झूठ ही बड़बड़ाते हैं, और इन्हीं के इशारे पर चलने वाला हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट कहाँ तक सच बोल सकता है ! और समस्त हिन्दू चुप-चाप इस असह्नीय अपराध को अपमान को बर्दास्त कर गये किसी ने एक शब्द भी बोलने का साहस नहीं किया ! लेकिन अब और नहीं ! अरे जब यह कांग्रेश पार्टी इतना लुट रही है, मान लो सब लुटेरे ही हैं, तो हमें क्या फर्क पड़ता है, कोई भी पार्टी आये ! और जब कोई भी पार्टी तो भा.ज.पा. क्यों नहीं ! पूर्ण बहुमत से भा.ज.पा. को लाओ ! ऐसा नारा लगाना है ! और ऐसाही हो इसके लिए अपना जी-जान लगा देना है ! जब कोई भी लूटे तो भारतवासी क्यों नहीं ! हिंदुत्व वादी पार्टी क्यों नहीं ! भा.ज.पा. क्यों नहीं ! भा.ज.पा. को लाओ ! कांग्रेश को मिटाओ ! हिन्दुओं को और देश को बचाओ ! हिन्दू धर्म को बचाओ ! वरना ईसाई बनने के लिए तैयार हो जाओ ! फैसला आपके हाथ !!
!! जय श्री कृष्ण !!

Sunday, April 24, 2011

NARAYAN

फुलोँ को फुल पसदं हे,दिलोँ को दिल पसदं हे, शायर को शायरी पसदं हे. किसी की पसदं से हमे क्या, हमको तो बस सतगुरुजी पसदं हे.

सतगुरुजी रे मेरे सतगुरुजी

सतगुरुजी रे मेरे सतगुरुजी

तुम सहारे सबके हो मेरे ......

१ तुमसे ही पाई मैने खुसिया घनेरी

बिन तेरे क्याथी दाता ओकात मेरी

कैसे मै गाऊ गुरुवर महिमा तुम्हारी

तारणहारे सबके हो मेरे - - - - - - - -

२ चलती है सासे ये है

रहमत तुम्हारी

तुम्ही हो गुरुवर सच्ची

दोलत हमारी

तुम पे वारु अपनी

जिंदगी ये सारी

तारणहारे सबके हो मेरे - - - - - - -

३ नीचदीन तुम्हारा मै तो

दीदार पाऊ

तुमको ही सिमरु और मै

तुमको ही ध्याऊ

जिव्हा से अपनी तेरे

गुणगान ग़ाऊ

तारणहारे सबके हो मेरे - - - - - - -

४ जो भी सच्चे मन से गुरुवर

के दारा आता

पाता है सारी मुरादै खली न जाता

गुरु जैसा न है जग में

कोई भी दाता

तारणहारे सबके हो मेरे - - - - - - -

५ मिथ्या है जग ये सारा

तुमही हो सहारा

डगमग है नैया डोले

तुमही हो किनारा

तुम बिन नहीं है बापू

कोई भी हमारा

तारणहारे सबके हो मेरे - - - - - - -

६ तुमने ही गुरुवर सबकी

भ्राती मिटाई

ज्ञान की ज्योति सबके

दिल में जगाई

तुमसे न हो अब गुरुवर

कभी भी जुदाई

तारणहारे सबके हो मेरे - - - - - - -

Saturday, April 23, 2011

पाँच बातें

1. भगवच्चरित्र का श्रवण करो । महापुरुषों के जीवन की गाथाएँ सुनो या पढ़ो । इससे भक्ति बढ़ेगी एवं ज्ञान वैराग्य में मदद मिलेगी ।



2. भगवान की स्तुति भजन गाओ या सुनो ।



3.
अकेले बैठो तब भजन गुनगुनाओ । अन्यथा, मन खाली रहेगा तो उसमे काम, क्रोध,
लोभ, मोह, मद, मात्सर्य आयेंगे । कहा भी गया है कि “खाली मन - शैतान का घर
|”



4. जब परस्पर मिलो तब परमेश्वर की, परमेश्वर-प्राप्त
महापुरुषों की चर्चा करो । दिये तले अँधेरा होता है लेकिन दो दियों को आमने
सामने रखो तो अँधेरा भाग जाता है । फिर प्रकाश ही प्रकाश रहता है । अकेले
में भले कुछ अच्छे विचार आयें किंतु वे ज्यादा अभिव्यक्त नहीं होते । जब
ईश्वर की चर्चा होती है तब नये-नये विचार आते हैं, एक दूसरे का अज्ञान और
प्रमाद हटता है तथा एक दूसरे की अश्रद्धा मिटती है ।



भगवान
और भगवत्प्राप्त महापुरुषों में हमारी श्रद्धा बढ़े ऐसी ही चर्चा करनी सुननी
चाहिए । सारा दिन ध्यान नहीं लगेगा, सारा दिन समाधि नहीं होगी । अत: ईश्वर
की चर्चा करो, ईश्वर सम्बन्धी बातों का श्रवण करो । इससे समझ बढ़ती जायेगी,
प्रकाश बढ़ता जायेगा, शांति बढ़ती जायेगी ।



5. सदैव प्रभु की स्मृति करते-करते चित्त को आनंदित होने की आदत डाल दो ।



ये पाँच बातें परमात्म प्रेम बढ़ाने में अत्यंत सहायक हैं ।

Wednesday, April 20, 2011

********माया********

माया सम्पूर्ण जगत को नचाने में लगी रहती है! ब्रह्मा से लेकर
स्तम्बपर्यंत जितने पांच इन्द्रियों से सम्बन्ध रखने देवता, दानव एवं मानव
हैं, वे सभी मन और चित्त का अनुसरण करते हैं! सत्त्व, रज और तम--ये तीन
गुण ही सर्वथा सब में कारण होते हैं! कार्य, कारण को लेकर ही होता है--यह
बिलकुल निश्चित है! माया से उत्पन्न हुए तीनों गुण पृथक-पृथक स्वभाव के
होते हैं; क्योंकि शांत, रौद्र और मूढ़--तीन प्रकार का भेद इन में पाया
जाता है! भला, सदा इन गुणों का आश्रित पुरुष इनके अभाव में कैसे कायम रह
सकता है? जिस प्रकार संसार में तन्तुविहीन पट की सत्ता मानना असंभव है,
वैसे ही तीनों गुणों से हीन प्राणी के विषय में समझना चाहिये---यह बिलकुल
निश्चित बात है!

देवता मानव अथवा पशु किसी का भी शरीर गुण रहित होने पर वैसे ही कायम नहीं
रह सकता, जैसे मिटटी के बिना घडा नहीं रह सकता! गुबोब का संयोग होने से ही
ब्रह्मादि-प्रधान देवताओं के मन में कभी प्रसन्नता होती है, कभी सदासीनता
छ जाती है और ये कभी विषादग्रस्त भी हो जाती हैं! ऐसे ही सूर्य वंशी एवं
चन्द्र वंशी चौदहों मनु प्रत्येक युग में गुणों के अधीन रह कर कार्यभार
संभालते हैं! तब फिर इस जहर में रहने वाले एनी साधारण व्यक्तियों के लिये
कौन-सी बात है? देवता दानव, मानव आदि सारा प्राणिजगत कदापि संदेह नहीं
करना चाहिये! प्राणी माया की अधीनता में रहकर उसके आज्ञानुसार ही चेष्टा
करता है! वह माया परम तत्त्व के रूप में सदा सम्मिलित रहती है! उस परम
तत्त्व की आज्ञा पाकर प्राणियों को प्रेरित करना इसका नित्य का कार्य है!
उस माया को सहचरी रूप में स्वीकार करने वाली भगवती परमेश्वरी सदा उसे साथ
लिये रहती है! इसीलिये सच्चिदानन्दमय -विग्रह धारण करने वाली उन भगवती को
" मायेश्वरी" कहा जाता है! इनके ध्या, पूजन, नमस्कार और जप में सदा तत्पर
रहना चाहिये! इससे अपनी दयालुता के कारण वे प्राणी को माया रहित बना देती
हैं-- अपनी अनुभूति प्रदान करके वे माया को हर लेती हैं! अतएव इन भगवती
परमेश्वरी को "भुवनेशी" कहा हया है! इसके समान त्रिलोक में कोई सुंदरी
नैन है! यदि इनके रूप का ध्यान करने में चित्त निरंतर लग जाय तो
सदसत्स्वरूपिणी माया को दूर करने की इच्छा हो तो सच्चिदानन्दरूपिणी माया
अपना क्या प्रभाव दाल सकती है?

जिस प्रकार अन्धकार किसी दूसरे सघन अन्धकार को दूर करने में समर्थ नहीं हो
सकता ; किन्तु उसे मिटाने में सूर्य, चन्द्रमा अथवा अग्नि के तेज ही समर्थ
हैं, उसी प्रकार मायेश्वरी भगवती जगदम्बा ही अपनी प्रभा से माया को दूर
करती हैं--ऐसा जानना चाहिये! अत: मायिक गुणों से निवृत होने के लिये
प्रसन्नतापूर्वक भगवती की उपासना करनी चाहिये!

Tuesday, April 19, 2011

सनातन धर्मं की जय

जय श्री कृष्ण,
एक बार बैठक हुयी जिसमें ये चर्चा हुई की सबसे बड़ा कौन ? बहुत से लोगों ने मत दिया की पृथ्वी सबसे बड़ी है जहां अरबों लोग , असंख्य जीव जंतु और वनस्पतियाँ हैं , लेकिन समुन्दर ने कहा मेरा क्षेत्रफल तो पृथ्वी से तीन गुना है फिर तो मैं बड़ा हूँ ......
ये सुनकर समुद्र को एक विद्वान ने डांट दिया था ,
अभिमान तेरा अगस्त्य ने एक पल में झाड़ दिया था ,
लेकिन अगस्त्य भी अब एक सितारा है फलक पर ,
मानो गेंद की तरह एक नजारा है फलक पर ,
ये सुनकर आसमान को क्यों न फक्र हो ,
जहां करोड़ों सितारों ने बसाया अपना घर हो ,
ये देखकर एक भक्त ने उसे रोक दिया था ,
कहा की तुझे तो वामन ने एक पग में माप लिया था ...
तो मानन पड़ा भगवान् सबसे बड़ा है ,
जिसके सहारे जहां ये खड़ा है ,
इतने में एक भक्त बोल पड़ा सुनो बात हमारी ,
मेरे मन में बसा वो मोहन मुरारी ,
जब चाहे मैं बेख़ौफ़ उसको बुला लूं ,
उसको मैं अपने मन में बसा लूं ,
मानन पड़ा भक्त सबसे बड़ा है ,
भगवान् भी जिसके बंधन में बांधके पड़ा है ....
भक्तवत्सल भगवान् की जय ...........सनातन धर्मं की जय ...
!! जय श्री कृष्ण !! श्री राधे श्री राधे राधे श्री राधे !!

Monday, April 11, 2011

संत-शिरोमणि तुलसीदासजी कहते है....

संत-शिरोमणि तुलसीदासजी कहते है....

शुभ अरु अशुभ सलिल सब बहही ..सुरसरि को कोऊ अपुनीत न कहही..!!

समरथ को नहि दोष गोसाई..रवि-- पावक--सुरसरि की नाइ..!!

इस घोर कलिकाल में हम जिधर देखते है..मया का ही तांडव-नृत्य हो रहा है..सर्वत्र द्वन्द-ही-द्वन्द व्याप्त है..और इसकी ज्वाला में मानव जल रहा है..!!

आगे गोस्वामी तुलसीदासजी कहते है..

सुनहु तात मयाकृत गुन अरु दोष अनेक..गुन यह उभय न देखिहहि,,देखीय सो अविवेक..!!

तो इस मायामय संसार में हम जितने भी गुन और दोष देखते है..वह सिर्फ इस शरीर और संसार के लिए ही है..जैसे नाक से सूंघते है..तो इसमे से नकटी भी निकलती है..कान से सुनते है..तो इससमे से खुत भी निकालता है..कंठ से बोलते है तो काफ भी निकालता है..आँखों से देखते है..तो इसमे से कीचड़ भी निकलती है..शरीर सब सुखो--गुणों--कर्मो का साधन है..फिर भी स्वेद (पसीना) ..मॉल-मुत्रादी का त्याग करता है..!

तो हर कोई..समरथ है..गुन और दोष साथ-साथ लिए हुए है..!

यहि नश्वरता की पहिचान है..!

सबसे अच्छा गुन तो यहि है..की इन सबको देखा ही न जाय..क्योकि बुराई देखना भी एक अवगुण-अविवेक है..!

परमात्मा तो त्रिगुण-संपन्न होकर इस लोक में साकार है..और त्रिगुणातीत (निर्गुण) होकर निराकार है..! सतोगुण--रजोगुण--तमोगुण..यह बस्तुतः दोषरहित गुन है..लेकिन माया से संसर्ग में आकर

इसमे दोष आ जाता है..!

आवश्यकता है..द्वन्द से परे उठाकर निर्द्वंद परमात्मा तक पहुचने की..!

समरथ..होते हुए भी एक्रथ(एकरस) होने की..केवल भक्ति-मार्ग ही ऐसा मार्ग है..जो..गुणों के दोषों से मुक्त कर सकता है..! गुण अन्दर ही रहते है..क्योकि यह प्राकृत है..अवगुण(दोष) प्रकट होते है..क्योकि यह उदभूत है..जैसे अग्नि के संसर्ग में आने से लकड़ी या कोई भी ज्वलनशील बस्तु जलने लगाती है..वैसे ही..माया के संसर्ग में आने से गुणों की निर्मलता कलुषित होने लगाती है..!

गुण आकर्षित करता है..अवगुण प्रतिकर्षित करता है..!

क्रिया-प्रतिक्रिया का शाश्वत-सिद्धांत सदैव लागू होता है..क्योकि यह संसार द्वंदात्मक है..!

..इसलिए गुन और दोष के प्रति निरपेक्ष-भव रखने वाले सदैव आनंदित रहते है..!

"गंगा- भारत की आत्मा"

गंगा के प्रतीक को भी समझने जैसा है। गंगा के साथ हिंदू मन बड़े गहरे में जुड़ा है। गंगा को हम भारत से हटा लें, तो भारत को भारत कहना मुशिकल हो जाए । सब बचा रहे, गंगा हट जाए, भारत को भारत कहना मुशिकल हो जाए। गंगा को हटा ले तो भारत का साहित्य अधूरा पड़ जाए। गंगा को हम हटा ले तो हमारे तीर्थ ही खो जाए, हमारे सारे तीर्थ की भावना खो जाए।
गंगा के साथ भारत के प्राण बड़े पुराने दिनों से कमिटेड़ है। बड़े गहरे से जुडे है। गंगा जैसे हमारी आत्मा का प्रतीक हो गई है। मुल्क की भी अगर कोई आत्मा होती हो और उसके प्रतीक होते हो तो, गंगा ही हमारा प्रतीक है। पर क्या कारण होगा गंगा के इस गहरे प्रतीक बन जाने का कि हजारों-हजारों वर्ष पहले कृष्ण भी कहते है। नदियों में मैं गंगा हूं।
गंगा कोई नदियों में विशेष विशाल उस अर्थ में नहीं है। गंगा से बड़ी नदिया है। गंगा से लंबी नदिया है। गंगा से विशाल नदिया पृथ्वी पर है। गंगा कोई लंबाई में, विशालता में, चौड़ाई में किसी दृष्टि् से बहुत बड़ी गंगा नहीं है। कोई बहुत बड़ी नदी नहीं है। ब्रह्मपुत्र है, और अमेजान है, और ह्व्गांहो है। और सैकड़ों नदिया है। जिसके सामने गंगा फीकी पड़ जाए।
पर गंगा के पास कुछ और है, जो पृथ्वी पर किसी भी नदी के पास नहीं है। और उस कुछ के कारण भारतीय मन ने गंगा के साथ ताल-मेल बना लिया है। एक तो बहुत मजे की बात है। कि पूरी पृथ्वीं पर गंगा सबसे ज्यादा जीवंत नदी है, अलाइव। सारी नदियों का पानी आप बोतल में भर कर रख दें, सभी नदियों का पानी सड़ जाएगा। गंगा का नहीं सड़ेगा। केमिकली गंगा बहुत विशिष्ट है। उसका पानी डिटरिओरेट नहीं होता, सड़ता नहीं, वर्षों रखा रहे। बंद बोतल में भी वह अपनी पवित्रता, अपनी स्वच्छाता कायम रखता है।
ऐसा किसी नदी का पानी पूरी पृथ्वी पर नहीं है। सभी नदियों के पानी इस अर्थों में कमजोर है। गंगा का पानी इस अर्थ में विशेष मालूम पड़ता है। उसका विशेष केमिकल गुण मालूम पड़ता है।
गंगा में इतनी लाशें हम फेंकते है। गंगा में हमने हजारों-हजारों वर्षों से लाशें बहाई है। अकेले गंगा के पानी में, सब कुछ लीन हो जाता है, हड्डी भी। दुनिया की किसी नदी में वैसी क्षमता नहीं है। हड्डी भी पिघलकर लीन हो जाती है। और बह जाती है और गंगा को अपवित्र नहीं कर पाती। गंगा सभी को आत्मसात कर लेती है। हड्डी को भी। कोई भी दूसरे पानी में लाश को हम डालेंगे, पानी सड़ेगा। पानी कमजोर और लाश मजबूत पड़ती है। गंगा में लाश को हम डालते है, लाश ही बिखर जाती है। मिल जाती है अपने तत्वों में। गंगा अछूती बहती रहती है। उस पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता।
गंगा के पानी की बड़ी केमिकल परीक्षाएं हुई है । और अब तो यह वैज्ञानिक रूप से सिद्ध हो गया है कि उसका पानी असाधारण है।
यह क्यों है असाधारण, यह भी थोड़ी हैरानी की बात है, क्योंकि जहां से गंगा निकलती है वहां से बहुत नदियों निकलती है। गंगा जिन पहाड़ों से गुजरती है वहां से कई नदियों गुजरती है। तो गंगा में जो खनिज और जो तत्व मिलते है वे और नदियों में भी मिलते है। फिर गंगा में कोई गंगा का ही पानी तो नहीं होता, गंगोत्री से तो बहुत छोटी-सी धारा निकलती है। फिर और तो सब दूसरी नदियों का पानी ही गंगा में आता है। विराट धारा तो दूसरी नदियों के पानी की ही होती है।
लेकिन यह बड़े मजे की बात है कि जो नदी गंगा में नहीं मिली, उस वक्त उसके पानी का गुणधर्म और होता है। और गंगा में मिल जाने के बाद उसी पानी का गुण धर्म और हो जाता है। क्या होगा कारण? केमिकली तो कुछ पता नहीं चल पाता। वैज्ञानिक रूप से इतना तो पता चलाता है कि विशेषता है और उसके पानी में खनिज और कैमिकल्स का भेद है। विज्ञान इतना कहा सकता है। लेकिन एक और भेद है वह भेद विज्ञान के ख्याल में आज नहीं तो कल आना शुरू हो जाएगा। और वह भेद है, गंगा के पास लाखों-लाखों लोगों का जीवन की परम अवस्था को पाना।
यह मैं आपसे कहना चाहूंगा कि पानी जब भी कोई व्यक्ति, अपवित्र व्यक्ति पानी के पास बैठता है—अंदर जाने की तो बात अलग—पानी के पास भी बैठता है, तो पानी प्रभावित होता है। और पानी उस व्यक्ति की तरंगों से आच्छादित हो जाता है। और पानी उस व्यक्ति की तरंगों को अपने में ले लेता है।
इसलिए दुनिया के बहुत से धर्मों ने पानी का उपयोग किया है। ईसाइयत ने बप्तिसस्मा, बेप्टिाज्मग के लिए पानी का उपयोग किया है।
जीसस को जिस व्यक्ति ने बप्तिास्माय दिया, जान दि बैपटिस्ट ने, उस आदमी का नाम ही पड़ गया थ जान बप्तिस्मा वाला। वह जॉर्डन नदी में—और जॉर्डन यहूदियों के लिए वैसी ही नदी रही, जैसी हिंदुओं के लिए गंगा। वह जॉर्डन नदी में गले तक आदमी को डूबा देता, खुद भी पानी में डुबकर खड़ा हो जाता, फिर उसके सिर पर हाथ रखता और प्रभु से प्रार्थना करता उसके इनीशिएशन की, उसकी दीक्षा की।
पानी में क्यों खड़ा होता था जान? और पानी में दूसरे व्यक्ति को खड़ा करके क्या कुछ एक व्यंक्तिो की तरंगें और एक व्यक्ति के प्रभाव , एक व्यक्ति की आंतरिक दशा का आंदोलन दूसरे तक पहुंचना आसान है।
पानी बहुत शीध्रता से चार्ड्र हो जाता है। पानी बहुत शीध्रता से व्यक्ति से अनुप्राणित हो जाता है। पानी पर छाप बन जाती है।
लाखों-लाखों वर्ष से भारत के मनीषी गंगा के किनारे बैठकर प्रभु को पाने की चेष्टा करते रहे है। और जब भी कोई एक व्यक्ति ने गंगा के किनारे प्रभु को पाया है, तो गंगा उस उपलब्धि से वंचित नहीं रही है। गंगा भी आच्छादित हो जाती है। गंगा का किनारा, गंगा की रेत के कण-कण, गंगा का पानी, सब, इन लाखों वर्षों से एक विशेष रूप से स्प्रिचुअली चार्ज्ड, आध्यात्मिक रूप से तरंगायित हो गया है।
इसलिए हमने गंगा के किनारे तीर्थ बनाए।
गंगा साधारण नदी नहीं है। एक अध्यात्मिक यात्रा है और एक अध्यात्मिक प्रयोग। लाखों वर्षों तक लाखों लोगों को उसके निकट मुक्ति को पाना,परमात्मा‍ के दर्शन को उपलब्ध होना, आत्म-साक्षात्कार को पाना, लाखों का उसके किनारे आकर अंतिम घटना को उपलब्ध होना,वे सारे लोग अपनी जीवन-ऊर्जा को गंगा के पानी पर उसके किनारों पर छोड़ गए है।