Thursday, June 30, 2011

मुझे इंसान बना दो

बापू  , मुझे इंसान बना दो
तेरे दर पर खड़ा हूँ
थक गया हूँ जीवन से
सर से सारा भार उतार दो ( बापू  ............इंसान बना दो )

झूठ , फरेब ,क्रोध , मोह के
चक्रवीऊ में फसा हुआ हूँ
माया के जाल से
मुझे आज मुक्त करा दो ( बापू .......................इंसान बना दो )

जीवन की तीखी धूप ने
मेरी भावनाओं को झुलस दिया है
इस तपती धूप पर
अपनी ठड़ी छाव बिछादो ( बापू  ....................इंसान बना दो )

करूणा , शमा का वास
जीवन से मिट गया है
इस कठोर दिल को
दया का पाठ पड़ा दो ( बापू  ............................इंसान बना दो )

धन दौलत की आस ने
बिखेर दिया है मुझे
इस टूटे हुए आईने को
समेट लो अपने हाथो में ( बापू  .............................इंसान बनना दो )

आज तेरे दर पर आया हो
खाली ना जाऊगा
तेरे विश्वास को अपनी
आत्मा में बसाऊ गा
तुझे अपना बनाऊ गा
जय बापू आसारामजी ................................................
जीवन की हर ठोकर खायी है मैंने
अब ना अपनी गलती दोराहुगा
थाम लुगा तेरा आचल
और इंसान बनके जाऊगा ( २)

बापू जी अपने पवित्र चरणकमल

बापू  जी अपने पवित्र चरणकमल ही हमारी एकमात्र शरण रहने दो....
मेरे साथ साया है बापू  का, बस ये तसल्ली की बात है |
मैं तेरी नज़र से न गिर सका, मुझे हर नज़र ने गिरा लिया ||
तेरी रहमते बेहिसाब हैं, करूँ किस जुबान से शुक्रिया |
मुझसे जब भी कोई खता हुई, तुने फिर गले से लगा लिया ||
तेरी शान तेरे जलाल को, मैंने जब से दिल मैं बिठा लिया |
मैंने सब चिराग बुझा दिये, मैंने इक चिराग जला लिया ||...
बापू  जी अपने पवित्र चरणकमल ही हमारी एकमात्र शरण रहने दो...

कबहूँ न छोडूं साथ

अलौकिक को लौकिक दृष्टि से यदि आप देखेंगे , जाचेंगे , परखंगे तो भूल हो जाएगी. ऐसी भूल अक्सर हम सभी करते हैं . तभी तो भगवन ने कहा है , जो मेरी लीला को जान लेता है , वह जनम मृत्यु के चक्र से मुक्त हो जाता है . इस लीला में जन्म और कर्म दोनों आजाते हैं . शास्त्रों में बार बार कहा गया है की देवता की पूजा - अर्चना करने के लिए देवत्त्व को धारण करें अर्थात देवता बने . इसी तरह अवतार को समझाने के लिए भी दिव्यदृष्टि और सत्वबुद्धि चाहिए . यहाँ एक बात और बिचार करने योग्य है की सत्य को प्रमाणों की आवश्यकता नहीं होती और यह भी की प्रमाण सत्य की ओर संकेत मात्र करते हैं , सत्य को जानने के लिए जिज्ञासु साधक को प्रमाणों का अतिक्रमण करना पड़ता है, और भगवान् के भरोसे और स्वविवेक और आत्मज्ञान से आगर बढ़ाना होता है , क्योंकि भगवान् की यह प्रतिज्ञा है की ....
जहां भक्त मेरो पग धरे , तहां धरून मैं हाथ ....
पाछे पाछे मैं फिरूं , कबहूँ न छोडूं साथ

Wednesday, June 29, 2011

BAPU KA AANGAN

Bapu-ka-aangan hai yeh
hai nahi kuch bhi bapu se badkar
kyon karo chinta maan in sab aati jaati chizo ki
bapu hai hamesha humare sath
aaj bhi kal bhi sadev bhi
bapu vaas karta hai in sab hi chizo mein
to ab chahe
phool mile ya kaante
suhk mile ya duhk
accha ho ya bura
milna ho ya judaai
dosti ho ya dusmani
bapu  to hai sabhi mein
bapu to hai sabhi mein,..!!

Sunday, June 26, 2011

प्रेम ही ईश्वर है

प्रेम ही ईश्वर है,यह ही नशवर है,यह ही नर को नारायण से जोड़ता है
प्रेम ही बापू का सरूप है,बापू प्रेम की ही परिभाषा है,वो समाज में प्रेम ही तोह बाटने आए है,उनका अहम् तत्पर्ये समाज में फेले भेद भाव को हटाकर प्रेम की ज्योत परजालित करना है,वेह चारो और प्यार बाटते चाहे हिंदू हो या मुस्लमान,सिख या ईसाई,सबको समान नज़र से देखते,सभी के सुख दुःख बाटते,अगर कोई दुखी होता तोह बापू के समक्ष आते ही बापू उसके दुःख हर लेते और चारो और प्रेम का वातावरण कर देते ,बापू का यह भी कहना है कि
जितना हम प्रेम को समाज में फेलायेगे ,उतना ही अपने निकट हम मालिक को पाएंगे!!!!

Friday, June 24, 2011

jai gurudev

Jai gurudeva.....

YOU are my mother, my father, my brother, You are my friend. You are knowledge, You are the embodiment of love and tenderness. You are my everything. O BAPU !!!

BAPU, my body, my speech, my mind and all my senses, my intellect, my innate being --- all these I offer to YOU my GURU DEVA.

Holy lord of mine

Bapu - Teach me how to Pray

Something precious far away

May I keep on praying Thee

Sweet, Holy Lord of Mine

Bapu-Teach me how to Love

Something more than mortal love

May I keep on loving Thee

Sweet, Holy Lord of mine.

Bapu- Teach me how to serve

The service of Thy divine self

May I keep on serving Thee

Sweet, Holy Lord of mine.

Bapu-Teach me what to think

The thinking may give peace of mind

May I ever think of Thee

Sweet, Holy Lord of mine

Bapu-teach me how to speak

The speaking may be full of love

May I ever speak of Thee

Sweet, Holy Lord of mine

Bapu- teach me how to live

The living may live forever

May I ever live in Thee

Sweet , Holy Lord of mine.

Thursday, June 23, 2011

Khush Naseeb

Khush-naseeb hai vo,
Jo motera aate hai.
Aur Bapu jee ka,
Jo aasheesh paate hai.
Safal ho gaya jeewan,
Aur dhanya ho gayi kaya.
Jisne Motra me aakar,
Bapu ko sheesh jhukaya.
Mai bhi aaya Motra,
Dwaar “Dwarakamayi”
Jaha hai baithe rahte,
Bhagwan Sai Asaram jee bapu.
Na kuchh pana hamko,
Na kuchh ab karna hai.
Har-pal har-chhan ab,
Bas Bapu Bapu bhajna hai/
Meri shwaso ke sang,
Bapu tum bahte rahna.
Aur bankar mere saathi,
Sang-sang chalte rahna.
om guru om....<3

आपकी पूजा

आपकी पूजा से संवरे सब भक्तो के काज
साई हमारी रक्षा करो कल्याणकारी शनिजी महाराज

आपकी ही तो महिमा, गावे वेद पुराण
साई हमारी रक्षा करो, हे साई शिव भगवान्

जिन्हें सच्चे मन से पूजे पूरा भक्त समाज
साई हमारी रक्षा करो गजानन महाराज

महाकाली का रूप जो सत्पुरुशो का मान
साई हमारी रक्षा करो श्री राम कृष्ण भगवन

सफल होगे सरे कम, जपते रहो नित साईं आसारामजी बापू
ॐ शन्तिः शन्तिः शन्तिः

जय सांई आसारामजी बापू

जय सांई आसारामजी बापू।।।

हर लो तमस दे दो प्रकाश

सांई राह दिखाना,
सच्ची बात बताना।

छाया अंधकार है बहुत
फैला अनाचार है बहुत,
भटकाव है बहुत
तुम सांई ज्योति जलाना।

ये जग है जीने के लिए
या है मरने के लिये,
या आँसू पीने के लिये,
आंसू अमृत बनवाना

जब तू है मालिक हम सबका
तो मानव-मन है क्यों भटका,
सांसारिक जाल में क्यूँ अटका
अवतार रूप मे आना।

सांई राह दिखाना।


अपना सांई प्यारा सांई सबसे न्यारा अपना सांईआसारामजी बापू

Wednesday, June 22, 2011

OM GURU OM

Sune Hai Maine Bahut Bahut Karishme Tere,
Phir Se SAI, Aapna Jalwa Dikha De,
Aaya Hai Bapu Dar Per Tere,
Mujh Per Apna Reham Barsa De

Bhatak Raha Hoo Duniya Mein Maye,
Mujhko Hey SAI Apne Rah Bata De
Mere SAI, Mujhko Apne Ibaadat Ka,
Tu Noor Dikha De

Najre Tujhko Khoj Rahe Hai,
Har Surat Mei, Har Murat Mei,
Hey SAI, Tu Ab Karam Farma De,
Mujhko Apna Daras Dikha De, Mujhko Apna Daras Dikha De...

"लोका समस्ता सुखिनो भवन्तुः
ॐ शन्तिः शन्तिः शन्तिः"
May all the world be happy. May all the beings be happy.
May none suffer from grief or sorrow.. May peace be to all~~~ OM GURU OM

श्रृँगार नहीं अंगार लिखूंगा........

श्रृँगार नहीं अंगार लिखूंगा........
_________________________________________________

कल मैंनॆ भी सोचा था कॊई, श्रृँगारिक गीत लिखूं ,
बावरी मीरा की प्रॆम-तपस्या, राधा की प्रीत लिखूं ,
कुसुम कली कॆ कानों मॆं,मधुर भ्रमर संगीत लिखूं,
जीवन कॆ एकांकी-पन का,कॊई सच्चा मीत लिखूं,
एक भयानक सपनॆं नॆं, चित्र अनॊखा खींच दिया,
श्रृँगार सृजन कॊ मॆरॆ, करुणा कृन्दा सॆ सींच दिया,
यॆ हिंसा का मारा भारत, यह पूँछ रहा है गाँधी सॆ,
कब जन्मॆगा भगतसिंह, इस शोषण की आँधी सॆ,
राज-घाट मॆं रोता गाँधी, अब बॆवश लाचार लिखूंगा !!
दिनकर का वंशज हूं मैं, श्रृँगार नहीं अंगार लिखूंगा !!१!!

चिंतन बदला दर्शन बदला, बदला हर एक चॆहरा,
दही दूध कॆ सींकॊं पर, लगा बिल्लियॊं का पहरा,
इन भ्रष्टाचारों की मंडी मॆं, बर्बाद बॆचारा भारत है,
जलती हॊली मे फंसा हुआ,प्रह्लाद हमारा भारत है,
जीवन का कडुआ सच है, छुपा हुआ इन बातॊं मॆं,
अधिकार चाहिए या शॊषण,चयन तुम्हारॆ हाथॊं मॆं,
जल रही दहॆज की ज्वाला मॆं,नारी की चीख सुनॊं,
जीवन तॊ जीना ही है, क्रांति चुनॊं या भीख चुनॊं,
स्वीकार तुम्हॆं समझौतॆ, मुझकॊ अस्वीकार लिखूंगा !!
बरदाई का वंशज हूं मैं, श्रंगार नहीं अंगार लिखूंगा !!२!!
दिनकर का वंशज हूं मैं...........

उल्टी-सीधी चालें दॆखॊ, नित शाम सबॆरॆ कुर्सी पर,
शासन कर रहॆ दुःशासन,अब चॊर लुटॆरॆ कुर्सी पर,
सत्ता-सुविधाऒं पर अपना, अधिकार जमायॆ बैठॆ हैं,
गांधी बाबा की खादी कॊ, यॆ हथियार बनायॆ बैठॆ हैं,
कपट-कुटी मॆं बैठॆ हैं जॊ, परहित करना क्या जानॆं,
संगीनॊं कॆ सायॆ मॆं यॆ, सरहद का मरना क्या जानॆं,
अनगिनत घॊटालॆ करकॆ भी,जब पा जायॆं बहाली यॆ,
अमर शहीदॊं कॆ ताबूतॊं मॆं, क्यूं ना खायॆं दलाली यॆ,
इन भ्रष्टाचारी गद्दारॊं का, मैं काला किरदार लिखूंगा !!
नज़रुल का वंशज हूं मैं, श्रृँगार नहीं अंगार लिखूंगा !!३!!
दिनकर का वंशज हूं मैं...........

कण-कण मॆं सिसक रही,आज़ाद भगत की अभिलाषा,
अब्दुल हमीद की साँसॆं पूंछें, हैं आज़ादी की परिभाषा,
कब भारत की नारी कब, दामिनी बन कर दमकॆगी,
कब चूडी वालॆ हाँथॊं मॆं, वह तलवार पुरानी चमकेगी,
अपनॆं अपनॆं बॆटॊं कॊ हम, दॆश भक्ति का पाठ पढा दॆं,
जिस माँ की गॊदी खॆलॆ, उसकॆ चरणॊं मॆं भॆंट चढा दॆं,
भारत माँ कॆ बॆटॊं कॊ ही, उसका हर कर्ज चुकाना है,
आऒ मिलकर करॆं प्रतिज्ञा, माँ की लाज बचाना है,
सिसक रही भारत माँ की, मैं बहती अश्रुधार लिखूंगा !!
कवि-भूषण का वंशज हूं मैं,श्रृँगार नहीं अंगार लिखूंगा !!४!!
दिनकर का वंशज हूं मैं..............

"कवि-राजबुंदॆली"

Tuesday, June 21, 2011

जय साँईआसारामजी बापू

जय साँईआसारामजी बापू।।।

इस कदर मन मेरा प्यासा है तेरे कुरबत का,
इतना बरसो कि मेरे जिन्दगी को जल थल कर दो,
बना के रंग हिन्ना के हाथ हथेली पर
याँ कि पलकों तले आँख का काजल कर दो,
तेरी कुरबत हो इतनी कि तू नस नस में मेरे
समा के, मेरी हसरतों को मुकमिल कर दो।
मेरा बापू प्यारा बापू सबसे न्यारा मेरा बापू
ॐ साँई आसारामजी बापू।।।

जय श्री कृष्ण

जय श्री कृष्ण,

मित्रों, मुझे आपलोगों से एक जानकारी चाहिए ! तुला दान जो करते हैं, तराजू के एक पलड़े में एक किसी इन्सान को बिठा देते हैं, और दूसरी ओर कुछ सामग्री रखते हैं ! फिर वो सामग्री दान कर देते हैं, इसका क्या अभिप्राय होता है ! क्या दान करने से क्या लाभ होता है ! कृपया आप सबमें से जिसे भी इसका विस्तृत ज्ञान हो, वो कृपया विस्तार से ! एवं जिन्हें जितना ज्ञान हो वो उतना ही बताये ! सभी लोगों से निवेदन है, कि अपना-अपना मत प्रदान करें !!

!! जय श्री कृष्ण !!

कर्म के अनुसार ही आयु

कर्म के अनुसार ही आयु

योग दर्शन के अनुसार कर्म की जड़ में जाति आयु और भोग तीनो निहित रहते है ! कर्म के अनुसार ही जीव का निम्न या उच्च वर्ग मे जन्म होता है ! प्रारब्ध कर्म ही आयु का निर्धारक है,अर्थात जिस शरीर में जिस पहले किये गये कर्म का जितने दिन का भोग होगा,वह शरीर उतने दिन तक ही स्थित रह सकता है.उसके बाद नवीन कर्म की भोग स्थिति दूसरे शरीर मे होती है ! कर्म के भोग पक्ष का यही विधान है ! संसार के सुख और दुख कर्म के अनुसार ही होते हैं ! शरीर के अन्गों का निर्माण भी पूर्व कर्म के अनुसार होता है ! शरीर की रचना और गुण का तारतम्य भी पुरातन कर्म का ही परिणाम है ! उसमे दोष और गुण का संचार धर्माधर्म रूपी कर्म का ही संस्कार है !!
!! राधे राधे !!

जैसा कर्म


जैसा कर्म करेगा,वैसा फ़ल देगा भगवान !!
आत्मा सो परमात्मा के सिद्धान्त के अनुसार कर्म करने की तीन स्थितिया मानी जाती हैं-पहली मनसा,दूसरी वाचा,और तीसरी कर्मणा,मनसा से किसी प्राणी विशेष के लिये बुरा सोचना ही पाप बन जाता है,वाचा से किसी के प्रति अज्ञानता वश बुरा बोलना भी पाप हो जाता है,और कर्मणा से किसी प्राणी विशेष के प्रति बुरा करना भी पाप बन जाता है,मन से किसी के प्रति अगर कोई बुरा सोचता है तो लोग उसके बारे मे भी बुरा सोचने लगते है और,बुरा कहने से लोग भी बुरा कहते है,और बुरा करने बुरा करते भी है.महाभारत के के अनुसार कर्म संस्कार प्रत्येक अवस्था मे जीव के साथ रहता है,जीव पूर्व जन्म में (पीछे की जिन्दगी में) जैसा कर्म करता है,वैसा ही फ़ल भोगता है,अपने जीवन मे पहले से किये गये कार्य अपने समय पर फ़ल अवश्य देते है,अंशावतार के अनुसार माता पिता का अंश होने के कारण बालक गर्भ से ही कर्म फ़ल का भुगतान लेना चालू कर देता है,यानी माता पिता जिनका अंश वह स्वयं है,के द्वारा द्वारा पूर्व मे किये गये कार्यों का फ़ल बालक को भी मिलते है,राजा दसरथ ने श्रवण को मारा था और उनके माता पिता का श्राप राजा दसरथ के साथ भगवान श्री राम को भी भोगने पडे थे,क्योंकि वे भी राजा दसरथ के अंश थे.प्रारब्ध का फ़ल गर्भावस्था से ही भोगना पडता है,जीवन की तीन अवस्थाओं बाल युवा और वृद्ध में जिस अवस्था मे जैसा कर्म किया जाता है,उसी अवस्था में उसके फ़ल को भोगना पडता है,जिस शरीर को धारण करने के बाद जो कर्म किया जाता है उसी शरीर के द्वारा ही उस कर्म को भोगना पडता है,इस तरह से प्राब्ध का कर्म सदा कर्ता का अनुगामी होता है.

इश्क़

कहते है लोग, ये इश्क़ आग का दरिया होता है!
कैसे कहें हम, कि इश्क़ ही बापू  के दिल तक पहुँचने का ज़रिया होता है!
कहते है लोग, ये इश्क़ एक आँधी लाती है!
हमे तो इश्क़ से, मोटेरा के बाग की गीली गीली मिट्टी
की खुशबू सौन्धि सौन्धि आती है!
कहते है लोग, ये इश्क़ समंदर से भी गहरा होता है!
कैसे बताए, कि इश्क़ में, हर पल एक नया सवेरा होता है!
कहते है लोग कि इश्क़ में, कदम कदम पर संभालना होता है!
कैसे बताए, कि इश्क़ में, बापू  के साथ मिलकर एक राह पर चलना होता है!
कहते है लोग, कि इश्क़ में, माँगनी होती एक मन्नत है!
कैसे समझाऊ, कि बापू  से इश्क़ करना,
बन गई है मेरे लिए एक जन्नत
कहते है लोग, ये इश्क़ किसी और की अमानत होती है!
कैसे कहे सबसे, कि मेरे लिये ये इश्क़,
बापू  की दी हुई एक नेमत है!

राधा श्री राधा

भगवान श्री कृष्ण अनन्त ऐश्वर्य, अनन्त बल, अनन्त यश, 
अनन्त श्री, अनन्त ज्ञान और अनन्त वैराग्य की जीवन्त मूर्ति हैं

ब्रज मण्डल के कण कण में है बसी तेरी ठकुराई।
कालिन्दी की लहर लहर ने तेरी महिमा गाई॥
पुलकित होयें तेरो जस गावें श्री गोवर्धन गिरिराई।
लै लै नाम तेरौ मुरली पै नाचे कुँवर कन्हाई॥
व्रज समुद्र मथुरा कमल, वृन्दावन मकरंद।
व्रजबनिता सब पुष्प हैं, मधुकर गोकुलचंद

राधा श्री राधा रटूं, निसि-निसि आठों याम।
जा उर श्री राधा बसै, सोइ हमारो धाम

JIS HAAL ME...

Jis haal me rakhe Sai , Us haal me khushi se rahenge Hum
Sukh ho ya Dukh , Naam unka japenge har pal
Chahe bhatkaye ye zamana
Chahe maare jag taana
Magar Bapu Bapu kahte kahte
Jeevan gujarenge Hum

Kuch kahna hoga gar Bapu se
Toh Shukriya hi karenge Hum

mila hai ye jeevan toh den hai usi ki
Usi ke liye jeevan nyochhavar karenge Hum

Nahi hume haq rulane ka kissi ko
Nahi hume haq satane ka kissi ko
Gar nh kar paaye kisi ki madad toh
Rasta use Bapu Dar ka dikhlayenge Hum

Joh bhatak gaye hai zindagi se apni
Joh naraz hai har khushi se apni
Joh anjaan hai Bapu ki shakti se
Unhe jeevan jeena sikhayenge Hum

Nahi phir Bapu ka dil kabhi dukhayenge Hum
Kabhi na karenge shikwa unse
Sada musakuraayenge Hum

Hai yakeen mera musakurata hume dekh kar
Bapu ki Vyadha ko kam kar paynge hum

Do Bapu Aashirwaad prann ko hamare
Saari duniyaa ko Bapu se milana Chahate hai Hum

Diya hai Jeevan Ye aapne
Aapko hi samarpit ye jeevan karte hai hum

Karo aisi kripa apne bachcho par
Aa kar paas tumhare
tumhare hi ho le Hum

Na bhule kabhi dil Bapu ko apne
Sote Jagte Bapu Japte rahe Hum
OM GURU.... OM BAPU........OM OM OM...........JAI GURU DEV......
<3 <3 <3 <3 <3 <3

Sunday, June 19, 2011

सगरे जगत में दूजा नहीं,

ॐ सांई आसारामजी बापू
सगरे जगत में दूजा नहीं,
मेरा इक तू साईं
रहना मुझको, संग संग तेरे,
बनके तेरी परछाई
लेके उमीदें तेरे दर पे
आते है सारे सवाली
मांगे मुरादें लेके जाएं
भर भर दामन खाली
मेरे मालिक मेरे दाता
भाग बना दे भाग्य विधाता
अब दुख सहा न जाता
सगरे जगत में दूजा नहीं,
मेरा इक तू साईं
रहना मुझको, संग संग तेरे,
बनके तेरी परछाई
तेरे चरणों की धुल उठाके,
माथे पर मैं लगाऊं
तेरी मिट्टी में जन्म लिया है,
तुझ में हे मिल जाऊं
चाहे बना दे चाहे मिटा दे,
जो चाहे वोह मुझको सज़ा दे
जीवन पार लगादे.
सगरे जगत में दूजा नहीं,
मेरा इक तू साईं
रहना मुझको, संग संग तेरे,
बनके तेरी परछाई

Wednesday, June 15, 2011

जिन्दगी की बेल

 हमें समझ लेना चाहिए की जिन्दगी की बेल के सभी अंगूर मीठे नहीं है; कुछ मीठे है और कुछ खट्टे भी हैं। दुःख और सुख जीवन के अविभाज्य अंग हैं, और हमें निराशा, अपमान एवं दुःख को जीवन का अपरिहार्य अंग मानकर स्वीकार करना पड़ेगा, अन्यथा हम आगे नहीं बढ़ सकते हैं और शोकसन्तप्त होकर विनष्ट हो जायेंगे। विवशता एवं असाध्यता के साथ समझौता कर लेना, उसे सहर्ष अपना लेना बुद्धिमत्ता है। जीवन में यथार्थता को स्वीकार कर लेना और उसके साथ समायोजन (एडजस्टमेण्ट) करके संतोष धारण कर लेना सुख-शांति की दिशा में एक आवश्यक पग है। यह एक तथ्य है कि हम किसी भी व्यक्ति तथा किसी भी परिस्थिति में पूर्णतः संतुष्ट नहीं होते। समझौता तो पग-पग पर आवश्यक होता है। सुखी एवं स्वस्थ जीवन अपने साथ, परिवार के साथ समझौतों की एक श्रृंखला है। जीवन का उदगम भी स्वयं समझौता है। समझौता जीवन का प्रमुख सिद्धांत है। किसी भी नारी विफलता को पूर्ण पराजय मान लेना एक भयंकर भूल है। विवेकशील व्यक्ति किसी भी स्थिति को जय-पराजय की तराजू में नहीं तौलता है। उसे तो प्रत्येक फल में प्रभु-इच्छा का दर्शन होता है, जिसे वह सहर्ष शिरोधार्य कर लेता है। वह अन्याय के प्रतिशोध में संघर्ष करता है, किंतु फल को स्वीकार कर लेता है। वह संघर्ष को कोसता नहीं है, उसका स्वागत करता है, क्योंकि उससे व्यक्तित्व में निखार आता है। सन्त तुलसीदास कहते हैं, 'सुकृतसेन हारत जितई है' अर्थात् उत्तम कर्म की सेना (शक्ति) हारकर भी जीतती है क्योंकि पुण्य सदा विजयी है। अपने आपको गाली देना, अपने भाग्य को कोसना तुंरत छोड़ दें-यदि आपने जीवन में सुख की ओर बढ़ने का संकल्प किया है। प्रत्येक स्थिति में प्रसन्न रहना मानों दुर्भाग्य को भी चुनौती देना है। वह इन्सान क्या जो ठोकरें नसीब की न सह सके। दरियाए तूफान में किश्ती छोड़कर उस मालिक के सहारे मौज और मस्ती में रहना चाहिए।'मुसीबत में बशर में जौहरे मर्दाना खिलते हैं, मुबारिक बुजदिलों को गर्दिशे किस्मत से डर जाना।' मुसीबत की चुनौती स्वीकार कर उसका डटकर मुकाबला करना चाहिए। परीक्षा के समय भाग खड़े होना अथवा रोने लगना कायरता है। लोग जिसे सौभाग्य कहते हैं, वास्तव में वह परिश्रम का फल होता है, अवसर का सदुपयोग होता है। जिंदगी हिम्मत का सौदा है। प्रयत्न करने पर भी बार-बार विफल होने के कारण जब दिल टूट रहा हो, तब भी गिर-गिरकर अपने को संभालकर उठ खड़ा होना चाहिए और संकट की चुनौती को स्वीकार करके आगे बढ़ते रहना चाहिए। हिम्मत हारकर मनुष्य संतुलन और विवेक खो बैठता है तथा विषय परिस्थित को अधिक विषय बना देता है। साहस, संतुलन और विवेक द्वारा ही गंभीर संकट का दृढ़तापूर्वक सामना किया जा सकता है। वज्र संकल्प लेकर उठे और हिम्मत से आगे बढ़े। जीवन का प्रवाह सदैव गतिमान रहता है तथा व्यक्ति एवं स्थिति स्थिर नहीं रह सकते हैं। जो आगे नहीं बढ़ रहा है, वह पीछे या इधर-उधर हट रहा है तथा पतन के समीप जा रहा है। इन्सान को हिम्मत से आगे ही आगे बढ़ते रहना चाहिए। जीवन में साहस और धैर्य ज्ञान की अपेक्षा अधिक उपयोगी सिद्ध होते हैं। धैर्य का अर्थ है, शान्तिपूर्वक कष्ट सहन करना तथा पुनः प्रयत्न करना। अपनी मंजिल तय करते हुए लक्ष्य की ओर हौसले से आगे बढ़ते रहने में ही जीवन का सुख छिपा पड़ा है।'मंजिल पै जिन्हें जाना है, शिकवे नहीं करते, शिकवों में जो उलझे हैं, पहुँचा नहीं करते।' एक कहावत है-'हिम्मते मरदाँ, मददे खुदा।' हिम्मत करनेवाले को ही प्रभु की सहायता मिलती है। जब मित्र तथा संबंधी वचन और आश्वासन देकर भी धोखा करें, इससे हम मन में आघात न मानें बल्कि संसार में यथार्थ रूप को समझें, स्वार्थरत जगत् को समझें और जीवन की वास्तवकिता को स्वीकार करें। विचित्र विडम्बना तो यह है कि उन धोखा देनेवाले बहुरूपियों से भी स्थायी लड़ाई मेल नहीं ली जा सकती है और सावधान रहते हुए फिर उनके साथ काम चलाना पड़ता है। सत्पुरुष मन में कटुता नहीं आने देते हैं। यदि कोई वस्तु टूट जाय अथवा खो जाय अथवा कोई क्षति हो जाय, उस पर क्लेश करना भी सुख-वृत्ति को लात मारना है। यदि बच्चे या नौकर से कुछ टूट गया, तो बस घर में उस पर आपत्ति आ गयी और कोहराम मच गया। यह मूर्खता त्याज्य है। अपने से छोटे, अपने अधीनस्थ एवं आश्रित जन के साथ बड़ा होने के कारण कठोर व्यवहार करना सबको आपका विरोधी बना देगा। जहाँ संकेतमात्र से अथवा मुस्कान मात्र से आज्ञा-पालन हो रहा हो, वहाँ मुँह चढ़ाकर तथा घुड़ककर आज्ञा देना नासमझी है। चतुर सवार घोड़े को मामूली लगाम हिलाने से मुड़ने, चलने और रुकने का आदेश दे देता है तथा मूर्ख सवार चाबुक मार-मारकर उसे चाबुक की आदत डाल देता है। आपके अधीनस्थ जन, (घर में या दफ्तर में) आपके छोटे भाई, बहन, बच्चे और परिचायक आपसे प्रेम करना चाहते हैं, आपका कृपा-पात्र बनना चाहते हैं और संबंध को प्रगाढ़ करना चाहते हैं, किंतु आप उन्हें दुर्नीति एवं दुर्व्यवहार से अपना विरोधी बना देते हैं। उनको उचित आदर दें, उनके मन में अपने प्रेम की मोहर लगा दें तथा मधुरता से उन्हें जीतकर ही उनसे काम करायें। छोटा समझकर उपेक्षा करना भूल है।'रहिमन देखि बड़ेन को लघु न दीजिअ डार, जहाँ काम आवै सुई कहा करै तलवार।' एक छोटा-सा तिनका आँख में या दाँत में घुसकर परेशान कर सकता है।

भाग्यशाली हैं

भाग्यशाली हैं वे लोग, जिन्हें चिन्ता करने को भी फुरसत नहीं मिलती और जो उत्तम लक्ष्यों की पूर्ति के लिए अपने जीवन को भी अल्प मानते हैं तथा अभागे हैं वे लोग, जो कार्य के अभाव में पर-निंदा जैसी विध्वंसात्मक बातों में तथा व्यसनों में समय नष्ट करते हैं या काल्पनिक दुखों में ही पड़े रहते हैं। व्यस्त रहनेवाले ही जीवन में कुछ कर पाते तथा व्यस्त रहनेवाले ही अधिक काम के लिए ही समय निकाल लेते हैं जब कि निठल्ले लोगों को आलस्य से ही फुरसत नहीं मिलती जिसे काम मिल गया, मानों उसे राम मिल गया। वास्तव में कार्य-भार हमें नहीं थकाता; अरुचि, चिन्ता और भय थकाते हैं। हाँ, आवश्यक दैनन्दिन कार्यों की सूची डायरी में लिख लेनी चाहिए तथा कार्य संपन्न होने पर उसे डायरी में काट देना चाहिए। मस्तिष्क पर फालतू बोझ नहीं डालना चाहिए।
हमें मित्रों के साथ तथा परिवार के बीचे में रहने के लिए भी कुछ समय अवश्य निकालना चाहिए, जब हम हास्य-विनोद और मनोरंजक चुटकुलों से मन को प्रफुल्ल कर सकें। परिवार एवं मित्रवर्ग के संग-साथ में कुछ समय देते रहने से उनके साथ सद्भावना बनी रहती है। परिवार एवं मित्रवर्ग के साथ सामंजस्य हुए बिना मनुष्य को बाह्य जगत् में सुयश पाकर भी कदापि शांति नहीं मिल सकती है। मित्र हमें फँसने और फिसलने से बचाता है और दुख में सच्चा सहारा होता है। प्रकृति के सम्पर्क में आना तथा कभी- कभी मित्रों अथवा परिवार के साथ भ्रमण और विहार के लिए कहीं दूर जाना खोयी हुई स्फूर्ति को पुनः वापस ला देता है।
हमारे व्यवहार में, विशेषतः हमारी उन्नति होने पर, अंहकार की दुर्गन्ध नहीं आनी चाहिए। हमारा विनम्र और मधुर व्यवहार हमें न केवल आदर-सत्कार सुलभ कर देगा, बल्कि हमें सुख और शांति भी प्रदान करेगा।
निर्धनता के कारण उत्पन्न हीन-भावना हमें सता सकती है। उसका उपाय पुरुषार्थ है। कल की चिन्ता तो न करें किंतु योजनापूर्वक पुरुषार्थ करें। आलस्य के कारण धन न कमाने पर, भूखे-नंगे रहकर दुर्दशा में पड़े रहना और दीनता को संयम अथवा सादगी कहना भयंकर भूल है।'नास्ति सिद्धिरकर्मणः।' बिना कर्म किये हुए, बिना पुरुषार्थ किये हुए, कोई सिद्धि नहीं होती है। भोगवृत्ति तो बुरी है, किंतु सबको मानसिक परिपक्वता के लिए आयु के अनुसार तथा सामाजिक स्तर के अनुरुप आवश्यक पदार्थों का उपलब्ध होना भी अभीष्ट होता है, अन्यथा हीनता की भावना आ घरेती है। हाँ, धीरे-धीरे भोगों में से गुजरकर भोग से त्याग की ओर बढ़ना तथा भोगों के आकर्षण से छूटना भी व्यक्तित्व के विकास के लिए आवश्यक होता है।
कठिनाइयों का बहाना लेकर, हाथ पर हाथ रखकर बैठनेवाले व्यक्ति का इस संघर्षमय संसार में जीने का अधिकार नहीं है। आलस्य छोड़कर, दृढ़ सकंल्प लेकर, लक्ष्य-पूर्ति के लिए लगनपूर्वक जुट जानेवाला व्यक्ति कठिनाई के राक्षस को ललकारकर चुनौती दे देता है और उस पर विजय पा लेता है। दुर्गम शिखरों पर चढ़ जाना अद्भुत विजयोल्लास देता है, जिसका बोध आलसी एवं कायर को कभी नहीं होता है। उत्तम लक्ष्य की प्राप्ति के लिए बहुत दूर तक चलना है, बहुत आगे तक जाना है, इसलिए सामने आये हुए क्षणिक और क्षुद्र प्रलोभनों से ठगे न जाएँ तथा समय नष्ट न करते हुए लक्ष्य-पूर्ति की दिशा में बढ़ते रहें। सुविधा के स्वर्ग में रहने की अपेक्षा कठिनाई के नरक को स्वर्ग बना देना मानव के लिए कहीं अधिक गौरवपूर्ण हैं।
हमें धन को विशेष महत्व न देना चाहिए, न किसी व्यक्ति को केवल धन संग्रह कर लेने के कारण ही कोई विशे, महत्व देना चाहिए।'बैंक बैलेन्स' बढ़ाने का चाव हमें अमानुषिक बना देता है। धन साध्य नहीं है। धन से न महानता प्राप्त होती है, न सुख। धन स्वयं एक समस्या है और प्रायः धन पाकर लोग असन्तुलित हो जाते हैं, मानवता खो बैठते हैं, अपने लिए तथा समाज के लिए दुखदायी हो जाते हैं। धन एक वरदान है तथा अभिशाप भी। यह आप पर निर्भर है कि धन वरदान सिद्ध होता है अथवा अभिशाप। क्या धन के बिना भी आपका कोई अपना महत्व है? धन एक अभिशाप है, यदि व्यक्तित्व खोखला है। धन एक वरदान है यदि आप उसका सदुपयोग करना जानते हैं। धन का सदुपयोग आपको तथा समाज को सुख दे सकता है। उचित प्रकार से पर्याप्त धनार्जन करना और परिश्रम के बाद जो कुछ मिले, उसमें संतोष करना सब प्रकार से हितकर होता है। स्वाभिमान एवं आत्मसम्मान के नाम पर मिथ्या अहंभाव जगाना मानसिक क्लेश का कारण बन जाता है। झूठी शान सदा दुःख देती है। समझदार व्यक्ति झूठी अकड़ के कारण अपना काम नहीं बिगाड़ता है। कभी-कभी 'मूँछे नीची, झण्डा ऊँचा' को मानकर कार्य सिद्ध कर लेना चाहिए। हनुमान से सुरसा के साथ यही नीति अपनाकर उस पर विजय पायी और कार्य-सिद्धि की। झूठी शेखी में आकर न जाने कितने लोग दुर्गति को प्राप्त होते हैं। झूठी शेखी में आकर गरम कॉपी एकदम पी लेने पर प्राण गँवाने जैसी अनेक घटनाएँ घटती रहती हैं। झूठी शेखी ने अगणित घर बरबाद कर दिये।'सकल सोक दायक अभिमाना।' उचित मात्रा में धन कमाकर दान के द्वारा रिक्त होना तथा सादगी के आदर्श की ओर बढ़ना महानता है, किंतु आलस्य के कारण स्वयं मरना तथा दूसरों को गाली देना आत्मप्रवंचना है। धन कमाना बुरा नहीं है, धन का दुरुपयोग करना बुरा है, शोषण बुरा है। धन का मोह बुरा है, धन का अंहकार बुरा है। यदि प्रयत्न करने पर भी किसी क्षेत्र में परिस्थिति न सुधरे अथवा प्राकृतिक आघात, दुर्धटना आदि के कारण कोई वास्तविक विवशता हो, तो उसे सहर्ष स्वीकार कर लेना चाहिए और उससे लज्जित अथवा दुःखी होना अव्यावहारिक है।

मेरी हिम्मत देखिये

'मेरी हिम्मत देखिये, मेरा सलीका देखिये,
जब सुलझ जाती है गुत्थी, फिर से उलझा देता हूँ मैं।'
-ऐसे लोगों से सावधान रहना चाहिए।
जब तक संकट न आये, उसकी चिन्ता करना निराधार है और जब संकट आ जाए तब भय करना संकट को उग्र करना, काम को बिगाड़ना है। उत्साह से उसका सामना करें। भय संकट को उग्र तथा हमें दीन बना देता है। पहले अपने भय को जीत लें। भय घर में घुसा हुआ हमारा भीषण शत्रु है। भय को भगाओ। भय से संदेह उत्पन्न होता है और वह आत्मविश्वास एवं साहस को तोड़कर शक्ति को चाट जाता है, शक्ति के स्रोत को सुखा देता है। भय के कारण हम घटनाओं एवं व्यक्तियों को भीषण और अपने को असहाय समझ लेते हैं। सौ में से निन्यानबे बार हम व्यर्थ की अनहोनी कल्पनाएं करते रहते हैं, जिनका कोई आधार नहीं होता है। भयानक वस्तुस्थिति की अथवा किसी व्यक्ति की उपेक्षा तो कदापि न करें, किंतु व्यर्थ ही उसे अति-महत्व भी न दें। जीवन एक सतरंगी धनुष के समान विविधताओं से भरा पड़ा है। हमें उसका रस लेना चाहिए तथा कभी उत्साह नहीं खोना चाहिए।
भय हमारी बुद्धि की हार है, हमारे आत्मविश्वास की हार है। मनुष्य सृष्टि का श्रृंगार है, किंतु भयभीत मनुष्य तो सृष्टि का निकृष्टतम वस्तु है। भय एक मिथ्या, काल्पनिक भ्रम है। आत्मविश्वास में अनन्त शक्ति है। वह आपको ऊँचे-से-ऊँचे शिखर पर ले जा सकती है। आत्मविश्वास को जगाना शुरु करें और कुछ दिनों में ही आपमें परिवर्तन आ जायेगा। आत्मविश्वास आस्तिकता का प्रथम चरण है, आत्मविश्वास का अभाव नास्तिकता का प्रारम्भ है।"हाँ, हाँ, मैं क्या नहीं कर सकता हूँ? मैं अवश्य कर सकता हूँ और सफल हो सकता हूँ। मैंने ब़ड़े-बड़े काम किये हैं, और आगे भी कर दूँगा। प्रभु ने मेरा हाथ पकड़ रखा है, प्रभु-कृपा मेरे साथ है।" भय की सीमा नहीं होती है, कहाँ तक भय मानें?"
प्रायः रात्रि के अन्धकार में निद्रा के समय भय और चिन्ता आकर हमें पकड़ लेते हैं। उस समय मन के द्वार में केवल हरिस्मरण का प्रवेश होने दें। मन्त्र-जप पहरेदार की भाँति निद्रा की रक्षा करता है। अनिद्रा होने पर बेचैन न होना चाहिए, क्योंकि बेचैनी से उत्पन्न तनाव अनिद्रा को द्विगुणित कर देता है। इसे भी प्रभु की कृपा से प्राप्त पूजा का सुअवसर मानकर लेटे हुए ही अथवा बैठकर मंत्रजप प्रारंभ कर दें और जप करते ही रहें, जब तक निद्रा न आये। अपने मानसिक मंत्रजप को स्वयं सुनने का प्रयत्न करने से अचिर ही निद्रादेवी आपको अपनी गोद में ले लेगी।'राम भरोस हृदय नहिं दूजा', इसे जप करके देखें। निद्रा लाने के लिए नशीली चीजों का सेवन करना मानों खत्ती से खाईं से गिर जाना है।
कुछ लोग तो अति व्यस्त रहने की शिकायत करते हैं कि वे काम के बोझ से दबे जा रहे हैं। प्रायः अच्छे काम का इनाम और अधिका काम होता है तथा खराब काम करने का इनाम काम न मिलना होता है, किंतु यह शिकायत की बात नहीं है। काम करने से न केवल मनुष्य दक्ष होकर काम पर हावी हो जाता है, बल्कि अन्य लोग भी उसे दक्ष मानकर उससे सलाह लेते हैं और उसका सत्कार करते हैं। काम को बोझ मानने से वह कष्टप्रद एवं शक्तिशोषक हो जाता है तथा रुचि लेने पर वह सुखप्रद बन जाता है। सामान्यतः परिश्रम करके ही अथवा अपने हिस्से का काम करने पर ही आपको भोजन करने का अधिकार है। बिना काम किये हुए धन कमाना, भोजन करना, अनधिकार चेष्टा है। काम तो आपको ही करना है, फिर रोकर क्यों करें, हँसकर क्यों न करें? अपने कार्य को तुच्छ अथवा छोटा मनाना और अपने-आपको कार्य की अपेक्षा बहुत बड़ा समझना चारित्रिक दोष है। काम को तुच्छ अथवा छोटा मानने से कर्तव्यपालन में शिथिलता आ जायगी जो मनुष्य को निकृष्ट बना देगी। प्रस्तुत लघु कार्य को ठीक प्रकार करने से बड़े काम भी स्वयं मिलेंगे और उन्नति का मार्ग स्वयं खुल जायेगा। लगन से काम करनेवाले मनुष्य को गहरा आत्म-संतोष तो सदा मिलता ही है।

अपच और अनिद्रा

अपच और अनिद्रा चिन्ता के कारण उत्पन्न होते हैं तथा चिंता से ये उग्र रूप धारण कर लेते हैं। अनिद्रा में जप करने के लिए बैठ जाएं। बैठकर केवल तटस्थ चिन्तन (अपने विचारों के साथ सहयोग न करते हुए, उन्हें देखते रहना) करने लगना भी मन को शान्त कर देता है। आखिर, मन के विचार तो आपके ही हैं। उनसे आप कब तक डरेंगे? मन के विचारों को, वे कितने भी डरावने क्यों न हों, शांत भाव से तटस्थ होकर बार-बार देखने से, उनकी भीषणता का शमन हो जाता है। मन के साथ समझौता तथा अपने साथ मेल करने का यही एक ढंग है। यदि मन के साथ मैत्री हो गयी, तो आपने रोग और कष्ट पर आधी विजय पा ली। मन के साथ मित्रता करने का अर्थ है, मन को समझकर उसे स्वीकार करना तथा धैर्यपूर्वक उत्तम दिशा देना अथवा उसे जीत लेना। मन को जीतकर मानो आपने एक साम्राज्य जीत लिया।
घृणा, क्रोध, भय, चिन्ता, ईर्ष्या, द्वेष, क्लेश आदि मनोविकार रक्त संचार पर भी कुप्रभाव डाल देते हैं तथा मानसिक विकलता उत्पन्न कर देते हैं। यदि आपको एक बार कोई रोग हुआ था और अब पुनः उसका प्रभाव हो गया है तो आप यह कल्पना एवं चिन्ता न करने लगें कि पुनः रोग उग्र हो जायगा। अब तो आपको आदत पड़ गयी और आप उस रोग का रहस्य जान गये। अतः विश्वास करें कि शीघ्र ही आप उस पर विजय पा लेंगे। सैकड़ों लोग की रोग से मुक्ति होती है, आपकी भी होगी। मन में यह विश्वास दृढ़ कर लें।
'मन के जीते जीत है मन के हारे हार।'
चिन्ता और भय के वेग से रसों का स्राव अवरुद्ध हो जाता है, रक्त-संचार बाधित हो जाता है और पाचन शिथिल हो जाता है। आप जैसा विचार करेंगे, वैसे ही बन जायेंगे। स्वस्थ विचार कीजिये और स्वस्थ बन जाइये। अपनी शक्तियों पर तथा प्रभु-कृपा पर विश्वास कीजिए। चिन्ता और भय को अभी निकाल फेंकिये।
जब भय का राक्षस आपको घेर रहा हो, आप चुपचाप उसको सुन लें। भय आपके सामने आपकी दुर्गति के जिस भयानक काल्पनिक चित्र को प्रस्तुत कर रहा हो, उसे भी देख लें और जरा मन में फैसला कर लें कि आप उसके लिए बिल्कुल तैयार हैं, बस, इस राक्षस के प्राण निकल जायेंगे और तुंरत इसकी मृत्यु हो जायगी। भय के कारण आप तिनके को तलवार समझ रहे हैं, तिल को पहाड़ मान रहे हैं। आपने ही भय को पालकर अपने सीने पर शत्रु को खड़ा कर लिया था। आप ही उसे भगा सकते हैं।
चिन्ता के स्थान पर चिन्तन करें, योजना बनायें और कर्म करें तथा परिस्थितियों का सामना करें। चिन्ता एक काल्पनिक दैत्य है, जिसे हमने स्वयं ही चिपटाया है। चिन्ता हमें क्रियाशील नहीं होने देती तथा हमारी दुर्गति कर देती है। आखिर, पलायन कब तक करेंगे? पलायन के स्थान पर साहसपूर्वक संघर्ष तथा कर्म करना सीखें। उत्साह आपका श्रेष्ठ मित्र है, आत्मविश्वास आपका सहोदर भ्राता है। इनका तिरस्कार न करें।
उलझन और समस्या बाहर संसार में नहीं है, मन में है। बाहर तो केवल परिस्थितियां हैं। उलझनों में फँसकर दम घोट लेने के बजाय उन्हें चुनौती देकर उनसे छुटकारा पा लेना मोक्ष है, मुक्ति है। निश्चिन्त, प्रफुल्ल मन स्वर्ग है तथा उलझा हुआ मन नरक है, जिसके जिम्मेदार हम स्वयं हैं। अपनी उलझनों के लिए दूसरों को उत्तरदायी ठहराकर, दूसरों को कोसकर उलझनों को हल नहीं हो सकता है। हमारी उलझनें हमारे सुलझाने से ही सुलझेंगी। उत्साह, आत्मविश्वास और धैर्य से उलझनें हँसते-हँसते सुलझ जायेंगी। सब कुछ खोकर भी परम मूल्यवान् जीवन तो अभी शेष है, जो वास्तव में सब कुछ है। हमें नये सिरे से शून्य से ही पुनः प्रारम्भ करके चमक उठने के लिए तैयार रहना चाहिए।'हम गिरकर फिर उठ जायेंगे'-यह आत्मविश्वास सुख और समृद्धि का मूलमंत्र है। बाहर की कठिन परिस्थितियों को चिंता को द्वारा मानसिक समस्या बना लेना अविवेक ही तो है। बाह्य स्थिति को वस्तुपरक (आब्जेक्टिव) दृष्टि से ही देखना चाहिए, न कि व्यक्तिपरक (सब्जेक्टिव) बनाकर। कुछ लोग अपनी तथा दूसरों की सुलझी हुई गुत्थी को फिर उलझा देने में निपुण होते हैं।

पश्चात्ताप छोड़ दें

सब प्रकार के पश्चात्ताप छोड़ दें। भूलों पर पछतावा करते रहने से शक्ति कुण्ठित होती है। अपनी पुरानी भूलों को पाप की संज्ञा देकर अपने को पापी एवं कलंकित मान बैठना और आत्मग्लानि की दलदल में धँसे रहा महापाप है। भूतकाल को स्वप्न की भाँति मिथ्या समझकर उसके साथ अपना नाता तोड़ दीजिये और वर्तमान को उल्लासमय बनाने का सच्चा प्रयत्न कीजिए। भूल को स्वीकार करने से भूल का अन्त हो जाता है। हाँ, सत्पुरुष अपनी भूल को स्वीकार करने में नहीं हिचकता है, क्योंकि भूल स्वीकार करने से मन हलका होता है तथा सुधार प्रारंभ हो जाता है। भूल मानते ही गलत पग को पीछे हटा लेना तथा भूल करते न रहना शूरवीर का काम है। आगे सँभलकर चलें और आगे बढ़ें। पूर्ण कौन है? किससे कभी भूल नहीं होती? कौन सदैव सफल होता है? भूल अथवा विफलता हो गयी तो आत्मग्लानि की क्या बात है? 'बीती ताहि बिसारि दे, आगे की सुधि लेइ।' दूसरों के सामने रो-रोकर पुरानी भूलों के गीत गाने से भूलों के संस्कार दृढ़ होते हैं, शक्ति का ह्रास होता है तथा उत्साह का क्षय होता है। पुरानी भूलों के स्मरण में उलझे रहने से प्रगति ही अवरुद्ध हो जाती है। सच्चा पछतावा वह है जो दोष को भस्म करके शीघ्र ही स्वयं भी विलुप्त हो जाये तथा आप भविष्य के लिए संकल्प लेकर शांत एवं शीतल हो जायँ और तत्पश्चात् बार-बार भूलों को न याद करें, न दुःख मानें। ग्लैडस्टोन ने कहा था कि कोई मनुष्य बहुत-सी और बड़ी-बड़ी भूलें बिना किये हुए कभी बड़ा या भला नहीं बना। वास्तव में भूलों का अनुभव तो राह का प्रकाश बन जाता है। विश्वास कीजिये, प्रभु उन जघन्य अपराधों को भी क्षमा कर देते हैं जिन्हें मानव अक्षम्य समझता है, यदि आप सच्चे भाव से शरण में आकर पवित्र हो गये हैं।
'सरन गये प्रभु ताहु न त्यागा। विस्व द्रोह कृत अघ जेहि लागा॥'
प्रभु शरणागत भयहारी हैं।
'कोटि विप्र वध लागहिं जाहू। आये सरन तजउँ नहिं ताहू॥
सनमुख होहि जीव मोहि जबही। जन्म कोटि अघ नासहिं तबही॥'
जो व्यक्ति दूसरों को क्षमा कर देता है, वह भूल होने पर अपने को भी क्षमा कर सकता है। जो दूसरों को क्षमा नहीं कर सकता है, वह अपने को भी क्षमा नहीं करता है और वह जीवन को नरक बना लेता है। शोक, विषाद में पड़े रहना अविवेक का परिचायक है। विषाद की काली चादर को आपने स्वयं ही ओढ़ा है। आप इसे उतारकर फेंक सकते हैं। यदि सन्तों का भूलकाल दिव्य है तो कथातथित पापी का भविष्य भी दिव्य हो सकता है। पुराने अपराधों की स्मृति का विवेकपूर्ण शमन (दमन नहीं) करने से आप अतीत से मुक्त हो सकते हैं। सच्चा पछतावा वह है, जिससे निर्मल जीवन का उदय हो।
रोग होने पर रोग की चिन्ता करना उसे द्विगुणित कर देता है। रोग का उपाय अवश्य करना चाहिए, किंतु रोग का चिन्तन एवं उसकी बार-बार चर्चा करना और रोग से भयभीत होकर जीवन को सड़ा देना मूर्खता ही है। रोग के 'मूड' में रहने से रोग बढ़ता ही है। होम्योपैथी, एलोपैथी आदि से बढ़कर लाभकारी 'एपेथी' (रोग की परवाह न करना है) है।'राम कृपा नासहिं सब रोगा।' कुछ लोग नाजुक-मिजाजी में रोग बना रहना चाहते हैं। यह उनके लिए एक शान की बात होती है। ऐसे लोगों से सदा बचते रहें। उनके सम्पर्क से काल्पनिक रोग लगते हैं।'मेरे एक पूर्वज इसी रोग से मर गये थे'-ऐसा तर्क मूर्खतापूर्ण होता है। अमुक व्यक्ति जैसे रोग के लक्ष्ण कहीं मुझमें तो नहीं है, कहीं मुझमें भी वह रोग तो नहीं आने लगा है, इस प्रकार अपने को दूसरे रोगियों के समान रोगी समझने लगना अथवा रोग के लक्षणों की मिथ्या कल्पना करना भयंकर भूल है। यदि आप चिकित्सक नहीं है तो व्यर्थ ही रोगों की सविस्तार जानकारी करने का प्रयत्न न करें, क्योंकि रोगों की जानकारी करते हुए आप अपने भीतर भी रोगों की मिथ्या कल्पना कर सकते हैं। ऐसे चिकित्सक को दूर रखें जो रोग को 'भयंकर' कहकर उसे असाध्य बना देता है।'आप बहुत सोचते हैं, मन में ताना-बाना बुनते रहते हैं, आपको भारी हृदय-रोग हैं, आपकी चिकित्सा करना कठिन है'-इत्यादि बातें अविवेकी चिकित्सक कहते हैं। किसी रोगी से अपनी तुलना न करें, स्वस्थ व्यक्तियों से प्रेरणा लें। प्रत्येक व्यक्ति की स्थिति अलग-अलग होती है। आशा और विश्वास रखने से तथा प्रबल इच्छा-शक्ति से भयंकर रोग भी ठीक हो जाते हैं। अतः ऋणात्मक चिन्तन करना सर्वथा त्याज्य है। अपने स्वस्थ हो जाने में तथा स्वस्थ रहने में अनन्त और अखंड विश्वास रखें। जीवन के प्रति आस्था, उत्साह और विश्वास मनुष्य को सदा तरुण बनाये रखते हैं।

विवेक

विवेक (सत्य का निर्धारण करना, ठीक और गलत का विचारपूर्वक भेद करने की शक्ति, गहरी समझदारी) का मूल्य पुस्तकीय ज्ञान से बढ़कर होता है। नियम-संयम मनुष्य के द्वारा ही मनुष्य के हित में बनाये गये हैं। बाधक हो जाने पर उसका संशोधन एवं परित्याग करना भी आवश्यक हो सकता है। नियम मनुष्य को जकड़ने और कुचलने के लिए नहीं है, विकास के लिए हैं। व्यक्तित्व का विकास होने पर अतिसंयम असंयम बन जाता है और अवरोधक हो जाता है। भीषण ज्वर में स्नान का आग्रह करना दुराग्रह ही है, यद्यपि स्नान करना लाभकारी होता है। साधारणतः वचनपालन धर्म्य हैं, किंतु अज्ञान एवं अबोधता अथवा धर्मान्धता में दिये गये वचन का पालन घातक और मूर्खता का परिचायक हो सकता है। (महाभारत में युधिष्ठिर के गाण्डीव धनुष को निकृष्ट कहते ही अर्जुन ने प्रतिज्ञापालन हेतु उन्हें मारने के लिए धनुष उठा लिया, किन्तु श्रीकृष्ण ने उन्हें ऐसा करने से यह समझाकर रोका कि वह प्रतिज्ञा ही अज्ञतापूर्ण थी तथा उसका समाधान अन्य प्रकार से हो सकता है। ) विवेक को त्यागकर धर्म भी धर्म नहीं रहता है। बदली हुई परिस्थिति में, अवसर के अनुरुप, दुराग्रह छोड़कर अपने निर्णय एवं निश्चय को बदल देना व्यावहारिक होता है।'प्राण जाँहि पर वचन न जाँही' सब स्थानों पर लागू नहीं होता है। जीवन के अनेक क्षेत्रों में, विशेषतः राजनीति में, कोई निर्णय अन्तिम निर्णय नहीं होता है। अनेक बार राष्ट्र के हित में युद्ध और संधि की जाती हैं, जो पूर्व निर्णय के विपरीत होती है। विवेक का सदुपयोग करना ईश्वरीय शक्ति का सदुपयोग होता है।
मनुष्य में जीने की इच्छा मृत्यु की लालसा से अधिक बलवती होती है। जीवन एक उल्लास है। तूफानी खुशी का दूसरा नाम जिन्दगी है। जीवन का गहरा, सच्चा और स्थायी सुख कब मिलता है? दूसरों के सुख के लिए जीने से। दूसरों को सुख देनेवाला व्यक्ति कभी दुःखी नहीं हो सकता है।'न हि कल्याणकृत् कश्चित् दुर्गतिं तात गच्छति' (गीता) अर्थात् दूसरों के सुख के लिए जीनेवाल व्यक्ति कभी दुःखी नहीं होता है। अपना अपमान अथवा अपनी हानि करनेवालो के भी दुःख में सुख ढूँढ़नेवाला कभी सुखी नहीं हो सकता। जीवन का सत्कार करनेवाला सबसे प्रेम करता है, सबको यथाशक्ति, यथासम्भव सुख देने का प्रयत्न करता है। मानवमात्र के प्रति प्रेम करना ही मानव का सबसे ब़ड़ा बल है। जीवन दीर्घ हो या लघु, महान् होना चाहिए। सबसे प्रेम करनेवाला, सबको सुख पहुँचानेवाला व्यक्ति सबसे बड़ा है। अच्छी प्रकार जिया हुआ लघु जीवन निरर्थक दीर्घ जीवन की अपेक्षा अधिक अच्छा है। जब तक जीवन रहे, समस्त भय छोड़कर सबको सुख देते रहें। प्रभु से अपने लिए नहीं, दूसरों के लिए प्रार्थना करें। दूसरों की मंगलकामना करे से अपना भी मंगल हो जाता है। सबके लिए जीनेवाला व्यक्ति मरकर भी अमर रहता है। दूसरों के लिए जीना, दूसरों के लिए प्रार्थना करना, दूसरों के सुख के लिए स्वयं दुःख उठाना, सच्चे सुख की सच्ची राह है।
प्रत्येक व्यक्ति के जीवन में कुछ समय के लिए अकारण ही मानसिक उदासी और उत्फुल्लता का दौर आता रहता है। उदासी के दौर में निराशा को घर करने न देना चाहिए तथा समझ लेना चाहिए कि वह दौर स्वयमेव निकल जायगा। उत्फुल्लता के दौर में किसी उत्तम कर्म में जुट जाना चाहिए।

। मस्ती की आदत डाल लें।

। मस्ती की आदत डाल लें। मस्त स्वभाव के बिना आप छोटी-छोटी बातों पर बड़ी चिन्ता करने लगेंगे, चिड़चिड़ें होकर लड़ने लेगेंगे, दुःखी रहने लगेंगे और रक्तचाप आदि के शिकार हो जायेंगे। कुछ लोग छोटी-सी मिट्टी की बमी पर ऐसे चढ़ते हैं, जैसे पर्वत पर चढ़ रहे हों। छोटी-सी बात पर ऐसी चिन्ता करते हैं, जैसे घोर संकट आ गया हो। मस्ती, प्रभु के प्रति भक्ति और मनुष्यों के प्रति अथाह प्रेम जगाने से स्वयं आविर्भूत हो जाती है।
व्यर्थ ही निरन्तर गम्भीरता, गारिमा का भारी बोझ सिर पर उठाये हुए हम खिलखिलाकर हँसना भूल गये तथा बात-बात पर चिढ़ने लगे। चिढ़ानेवाला व्यक्ति दुष्ट और चिढ़नेवाला मूर्ख होता है। छोड़ो, छोड़ो चिढ़ना और चिढ़ाना। अपना लो हँसना और हँसाना। हास्य और विनोद को स्वभाव का अँग बना लो। कटुता का उत्तर मधुर भाषा में देना सीख लो।
सदा रोते रहने का स्वभाव मनुष्य को दयनीय बना देता है। ऐसे व्यक्ति के साथ कौन बैठना पसंद करेगा जो दुःख की गाथा ही सुनाता रहता है तथा रोता ही रहता है? यदि कभी रोना भी पड़े तो प्रभु के समक्ष अकेले रो लेना चाहिए। कभी-कभी रोना ठीक हो सकता है, किंतु सदा रोते ही रहना तो जीवन को बोझ बना देता है।
अपमान का भय, हानि का भय, रोग का भय, मृत्यु का भय, अनेक प्रकार के भय हमें घेरे ही रहते हैं तथा सारा जीवन यों ही रोते, डरते बीत जाता है। भय बार-बार मन को विचलित कर देता है। भय भूखे भेड़िये की भाँति मनुष्य के स्वास्थ्य और सुख को खा जाता है। चिन्ता हमें पंगु बनाये रखती है। काल्पनिक चिन्ताओं में हम अपनी जीवन-शक्ति का क्षय करते ही रहते हैं। किसी मनुष्य के कोसने (दुर्भावना, ईर्ष्या, क्रोधावेश इत्यादि के कारण दुर्वचन कहने) पर ध्यान ही नहां देना चाहिए। किसी के कोसने से कभी कुछ नहीं बिगड़ता है, बल्कि कोसनेवाले का ही पुण्य क्षीण होता है। भय के कारण अपशुकन भूत-प्रेत आदि के भ्रम में पड़कर किसी तिथि को, कभी किसी समय को, कभी किसी संख्या को, कभी किसी पशु को, कभी किसी व्यक्ति को अशुभ कह देते हैं तथा बच्चों के कोमल मन पर भी कुप्रभाव डाल देते हैं। संसार में असंख्य ज्योतिषी और हस्त-रेखा-विशारद कहलानेवाले चतुर व्यक्ति दुःखीजन के दुःख का अनुचित लाभ उठाकर, उन्हें भयभीत कर उनका शोषण कर रहे हैं। जिन्हें अपने भविष्य का ज्ञान नहीं है, वे दूसरे के भविष्य का कथन करते हैं! मनुष्य का भविष्य हाथ की रेखाओं और ग्रहों द्वारा कदापि बाँधा नहीं जा सकता है। मनुष्य की इच्छा-शक्ति और पुरुषार्थ मनुष्य का भविष्य बनाती है, न कि उसके हाथ की रेखा और ग्रह। समझदार व्यक्ति ग्रह के चक्र से छूटकर ग्रहपति परमात्मा से नाता जोड़ता है। परमात्मा सर्वसमर्थ है। अज्ञात (ग्रहों और रेखाओं) के कुचक्र से छूटकर कर्म की ओर बढ़ना विवेक हैं। अनिश्चित का भरोसा करने से मन दुर्बल होता है। समस्या का उपाय तो पुरुषार्थ करना है। प्रारब्ध, नियति अथवा दैव अपना काम करे और हम अपना काम करें। हमारा श्रेष्ठ पथप्रदर्शक हमारा अपना उत्साह है। भविष्य-वक्ताओं के कुचक्र में फँसना अविवेक है, भटकना है। अन्धविश्वास में पड़ना बुद्धि का अपमान है। बृहस्पति स्मृति में लिखा है कि शास्त्र की बातों को भी बुद्धिरहित होकर मानने से धर्म-हानि होती है।
केवलं शास्त्रमाश्रित्य न कर्त्तव्यो विनिर्णयः।
युक्तिहीनविचारे तु धर्महानिः प्रजायते।
अर्थात् केवल शास्त्र का आश्रय लेकर कोई निर्णय नहीं लेना चाहिए। बिना युक्ति सोचे हुए विचार करने पर तो धर्महानि हो जाती है। इसी प्रकार की एक अन्य उक्ति हैः
यस्त नास्ति स्वयं प्रज्ञा शास्त्रं तस्य करोति किम्।
लोचनाभ्यां विहीनस्य दर्पणः किं करिष्यति॥
अर्थात् जिसके पास प्रज्ञा (विवेक, विचार) नहीं है, शास्त्र उसका क्या उपकार कर सकता है? नेत्रों से विहीन व्यक्ति का दर्पण भी क्या उपकार करेगा? नेत्रों को बंद करके मनुष्य प्रकाशित लैम्पपोस्च से भी टकरा जाता है, दिन में भी भटक जाता है। सच्चा बुद्धिजीवी कभी प्रज्ञा-नेत्र को मूँदकर नहीं बैठता है।

मानव को स्वस्थ एवं सुखी रहने के लिए

मानव को स्वस्थ एवं सुखी रहने के लिए ही वह स्वर्णिम अवसर मिला है। जीवन से बढ़कर अधिक मूल्यवान् कुछ भी नहीं है। यदि आपका सारा धन लूट गया और जीवन शेष बचा है तो कुछ भी नहीं लूटा और सब कुछ शेष रह गया। जीवन का महत्व समझना चाहिए। जीवन में रुचि लेना आद्य एवं सर्वप्रथम आवश्यकता है। धर्म, कर्म, ज्ञान, योग, भोग, त्याग, मुक्ति इत्यादि सब कुछ बाद में है। जो जीवन में रुचि नहीं लेता है, उसे जीने का अधिकार नहीं हैं तथा वह तो जिन्दगी के बोझ ढोनेवाला दयनीय पशु है। अपने जीवन को जैसा भी है, स्वीकार कर लेना चाहिए तथा अपनी परिस्थितियों को कोसकर अपने लिए नरक बना लेना नासमझी है। जीवन का पुजारी अवश्य ही सुख को प्राप्त कर लेता है। जीवेष्णा (जीने की इच्छा) निराशा को दूर करने के लिए महौषधि होती है। जीवन के सौंदर्य एवं आकर्षण को न जाननेवाले मूढ़जन जीवन से ऊब जाते हैं। अधिक-से-अधिक लोगों के लिए, विशेषतः अधिक-से-अधिक दीन-दुःखी जन के लिए, अधिक-से-अधिक उपयोगी बनने पर आपके जीवन में एक विचित्र माधुर्य उत्पन्न हो जायगा और आपका जीवन एक मधुर संगीत बन जायगा। जीवन की सरगम पर कोई बेसुरा राग न अलापें, एक मधुर संगीत गायें। मानव भ्रांत विचारों तथा मूर्खतापूर्ण कर्मों के कारण इधर-उधर भटकता ही रहता है। ईश्वरतत्व हमें सुख का रास्ता दिखा रहा है, किंतु हम तो जान-बूझकर आँखें बंद किये हुए बैठे हैं। धरती को स्वर्ग बनाने के प्रयत्न द्वारा ईश्वर को प्राप्त करो। उठो, जागो, आगे बढ़ो!
अनेक बार मनुष्य धन, बल इत्यादि के अभाव पर तथा अपने दुर्गुणों पर अनावश्यक ध्यान देने के लिए पतनकारक हीनभावना से ग्रस्त हो जाता है, किंतु आत्मसम्मान को जगाकर वह उससे भी अवश्य मुक्त हो सकता है। जीवन में कुछ अभावों के कारण अपने को हीन तथा दुर्गुणों के कारण अपने को निकृष्ट मान बैठना अविवेक हैं, अपने साथ शत्रुता करना है, अपना दम घोंटना है। हममें कुछ गुण भी तो हैं, उन्हें अनदेखा क्यों कर दें? हम अपनी सत्ता को नकारकर अपनी ही हानि क्यों कर लें?आत्मसम्मान को जगाकर मनुष्य निश्चय ही अपनी समस्त हीनता पर विजय पा सकता है। वास्तव में आत्मसम्मान आत्मविश्वास का जनक होता है तथा आत्मसम्मान के साथ आत्मविश्वास भी जाग जाता है। आत्मसम्मान एवं आत्मविश्वास के बिना मनुष्य दयनीय तथा उनसे युक्त होकर सर्वसमर्थ हो जाता है। आत्मसम्मान एवं आत्मविश्वास से ही मनुष्य को मनुष्य की प्रतिष्ठा प्राप्त होती है। आत्मसम्मान का भाव मनुष्य में सदगुणों का प्रेरक तथा दुर्गुणों का प्रभावी नियन्त्रक होता है। सणों के विकास द्वारा ही मनुष्य दुर्गुणों पर विजय पा सकता है।
वास्तव में प्रत्येक मनुष्य में महानता की अनन्त सम्भावनाएँ छिपी पड़ी हैं। किंतु मनुष्य को अपनी महत्ता पहचानकर उसके अनुरुप चिन्तन और कर्म भी तो करना चाहिए। कोई मनुष्य किसी एक दिशा में महान् हो सकता है तो कोई अन्य मनुष्य किसी दूसरी दिशा में आगे बढ़ सकता है। जिस मनुष्य के पास जो कुछ गुण या शाक्ति है, वह उसी को लेकर ऊँचा उठे। तभी उसकी सफलता और सार्थकता है। अनन्त शाक्तिमान् परमेश्वर का अंशभूत होने के कारण मनुष्य में अनन्त शक्तियों का भण्डार भरा पड़ा है तथा उसमें अनन्त उन्नति की सम्भावनाएं छिपी हुई हैं। अपनी निधि को बिना पहचाने तो राजा भी रंक ही है। मनुष्य अपनी अगणित प्रसुप्त शक्तियों को भूलकर दयनीय और उन्हें जगाकर समर्थ हो जाता है। अपनी शाक्तियों पर भरोसा करने की आवश्यकता है, उनके सदुपयोग करने और संकल्प लेने की आवश्यकता है, उत्तम लक्ष्यों की ओर चल पड़ने की आवश्यकता है, दृढ़ता और धैर्य की आवश्यकता है, आत्मविश्वास की आवश्यकता है। मनुष्य को कभी-कभी एकान्त में बैठकर आत्मविश्वास को जगाने का अभ्यास करना चाहिए और पग-पग पर सँभलने का निश्चय करना चाहिए। मनुष्य आत्मविश्वास को जगाकर ही संकटों को पार करता हुआ आगे बढ़ सकता है, ऊँचे उठ सकता है और महान् बन सकता है। आत्मविश्वास का अर्थ हैं अपनी समस्याओं को समझने और उनका समाधान करने की अपनी सामर्थ्य में विश्वास होना। मनुष्य विवेक के सहारे अपने विलुप्त आत्मविश्वास को जगा सकता है।
हमारे विचारों, आशाओं, निराशाओं, भय, घृणा, क्रोध आदि मनोवेगों का प्रभाव हमारे शरीर के अंग-प्रत्यंग पर पड़ रहा है, हमारे स्वास्थ्य और मनोदशा पर पड़ रहा है, शरीर की एक-एक कोशिश (सेल) पर पड़ रहा है; हृदय और मस्तिष्क पर पड़ रहा है, रक्त पर पड़ रहा है, स्नायुतंत्र (नर्वस-सिस्टम) पर पड़ रहा है। हमारे विचारों का प्रभाव हमारे व्यक्तित्व में झलक रहा है। जितनी बार भी हम चिंता से घबरा उठते हैं अथवा उत्तेजित होकर व्यर्थ ही घृणापूर्ण क्रोध में भड़क उठते हैं, उतनी बार हम मानों अपने ही शरीर में, मस्तिष्क से तथा प्रत्येक सेल से ही लड़ बैठते हैं। प्रत्येक चिन्ता और भय हमारे मन और स्वास्थ्य पर बुरा प्रभाव छोड़कर जाते हैं। चिंता और भय हमारे स्नायु-तंत्र में कम्पन तथा रक्त में एक विषैला तत्व उत्पन्न कर देते हैं जो हमें जर्जर कर देते हैं। मानसिक तनाव से बृहदांत्र शोथ (कोलाइटिस), उदरव्रण, सिरदर्द, कमरदर्द, हृदयघात आदि महारोग उत्पन्न हो जाते हैं। मानसिक तनाव का उपाय आत्मविश्वास ही तो है। आत्मविश्वास जगाकर आगे बढ़ें। सब लोग आत्मविश्वास से ही आगे बढ़ते हैं अतएव किसी व्यक्ति का खोया हुआ आत्मविश्वास लौटा देना उसकी सबसे बड़ी सेवा एवं सहायता है। हताश होना अथवा हताश करना अक्षम्य अपराध है। जहाँ आत्मविश्वास है तथा प्रभु पर विश्वास है, वहाँ चिन्ता और भय न रह सकेंगे। भक्तिभाव से ओत-प्रोत होकर कबीर कहते हैं:
उस समरथ को दास हौं, कदै न होय अकाज।
पतिबरता नांगी रहै, वाही पुरुस को लाज॥
ईश्वरभक्त का विश्वास है कि उसका अकाज नहीं हो सकता है, क्योंकि ईश्वर सर्वसमर्थ है, किंतु यदि कुछ हानि हो भी जाय तो वह ईश्वर का ही प्रसाद है। ईश्वर-विश्वास के प्रकाश में चिंता का अन्धकार लुप्त हो जाता है।
धीरे-धीरे मस्ती को स्वभाव का अंग बना लें। मस्ती की आदत डाल ले

मानव को स्वस्थ एवं सुखी रहने

प्रत्येक व्यक्ति जीवन में सुख चाहता हैं तथा सुख-प्राप्ति की दिशा में दिन-रात प्रयत्न करता है। किन्तु कभी-कभी मानसिक तनाव मनुष्य को सुख से दूर हटा देता है। क्या हम इस तनाव से मुक्ति पा सकते हैं? अवश्य ही। क्या हम खोये हुए आत्मविश्वास को भी पुनः पा सकते हैं? हाँ, निश्चय ही।

आप जीवन के अस्तित्व और सुख की चाह को तो स्वीकार करते ही हैं, क्योंकि उनका प्रत्यक्ष अनुभव आपको होता है। पुनर्जन्म आदि के कुछ सिद्धांत तो विवादास्पद हो सकते हैं, वे सर्वमान्य नहीं है, किंतु वर्तमान को सुखमय बनाने की मनुष्य की लालसा एवं क्षमता तो निर्विवाद है। सर्वप्रथम चिन्तन और अवधारणा की इकाइयों के रूप में परस्पर जुड़ी हुई लगभग दस-बारह अरब कोशिकाओं से युक्त अत्यन्त संवेदनशील मानव-मस्तिष्क को व्यर्थ बोझ और तनाव से मुक्त रखने के उपाय करना अत्यन्त आवश्यक है। प्रत्येक मस्तिष्क-कोशिका (न्यूरोन) तंत्रिका निकाय नर्वस सिस्टम की एक अत्यन्त सूक्ष्म इकाई होती है जो जटिलताओं के कारण विराटतम संकलक (कम्प्यूटर) की अपेक्षा भी अनन्तगुणा विलक्षणा होती है। कोई भी दो न्यूरोन समान नहीं होते हैं तथा प्रत्येक न्यूरोन में लगभग दो करोड़ आर० एन० ए० अणु होते हैं, जिनमें से प्रत्येक जीव रसायन के चमत्कार से एक लाख प्रकार के प्रोटीन बना सकता है। चिन्ता और भय मानव के असीम शक्तिसम्पन्न मस्तिष्क को, अनावश्यक बोझ डालकर, सतत क्षीण बनाते रहते हैं। आज की सभ्यता इस दिशा में मानव के लिए एक अभिशाप बन गयी है। यदि आप निश्चय कर लें कि आपको चिंता एवं भय से मुक्त होकर सुखी रहना है तो आपका जीवन सुखमय हो जायगा। आप विश्वास करें कि प्रकृति के सबसे बड़े चमत्कार, मानव-मस्तिष्क, में समस्याओं को चुनौती देने और संकटो से जूझने की अद्भुत क्षमता है, किंतु आपका संकल्प करना आवश्यक है। अतः आप आज ही और अभी वज्र संकल्प कर लें कि आपको सदा सुखी होना है और आप निश्चित रूप से सुखी हो सकते हैं। बस, अपने विचारों एवं सोचने के तरीकों में परिवर्तन लाने तथा जीवन के प्रति दृष्टिकोण को बदल डालने की आवश्यकता है। धैर्य से काम लें और इस संकल्प को पूरा करके छोड़ें।'कारज धीरे होत है काहे होत अधीर। समय पाय तरुवर फरै, केतिक सींचौ नीर।' धैर्य रखो। धैर्य की महिमा अनन्त हैं। धैर्य के साथ विश्वास एवं आशा को भी दृढञ रखना सीखें। धैर्य धारण करना कठिन होता है, किंतु उसके फल मीठे होते हैं।
जीवन का सार और सुख का रहस्य दो आँसुओं में निहित हैं-दूसरों के गम के आँसू पोंछकर प्रसन्नता का एक आँसू अर्जित करना तथा दूसरा आँसू एकांत में भाव-विभोर होकर प्रभु के प्रति कृतज्ञतापूर्वक बहाना कि उसने आपको सेवा करने का अवसर तथा उसके लिए क्षमता प्रदान की। बस, इतना ही समस्त धर्मों का संदेश हैं।
आज 'प्रोग्रेसिव' के नाम पर ईश्वरतत्व को नकारना एक फैशन हो गया है। ज्यों-ज्यों भौतिक प्रगति हो रही है, मानव की मानवता विलुप्त होती जा रही है। कलह और अशांति व्यापक रोग की भाँति फैलते जा रहे हैं। अतएव आध्यात्मिकता की आवश्यकता बढ़ती जा रही है। अशांति का उपाय आध्यात्मिकता है। धर्मों के नाम पर परस्पर घृणा का प्रचार करनेवाले तथा युद्ध भड़कानेवाले धर्म के तत्व एवं उद्देश्य को नहीं समझते हैं। संत किसी एक धर्म के खूंटे से नहीं बँधते हैं और सत्य का सत्कार करते हैं, वह चाहे जहाँ भी प्राप्त हो। एक सच्चा मानव मंदिर, गिरजा, गुरुद्वारा, मस्जिद को समान रुप से पवित्र मानता है तथा उसे अनेक मार्गों (धर्मों) के द्वारा प्राप्त किया जा सकता है। अपनी व्यक्तिगत अनुभूति के आधार पर ईश्वरतत्व को पहचानना तथा अपने स्वभाव के अनुसार उसके साथ एक व्यक्तिगत नाता स्थापित करना ईश्वर-प्राप्ति का श्रेष्ठ मार्ग है। देश, भाषा और ग्रंथ में बाह्य पवित्रता खोजनेवाले लोग जरा आन्तरिक भावनाओं की पवित्रता का भी तो महत्व समझें। ईश्वर का संबंध भावना से ही है, भाषा आदि से नहीं। धर्म के नाम पर घृणा-प्रचार एक हास्यास्पद विडम्बना है।
ईश्वर सच्चिदानन्द है, असीम शक्ति का भंडार है। ईश्वर हमारे लिए एक अनन्त एवं अक्षय शक्तिस्रोत है। यदि आपका आत्मविश्वास विलुप्त हो चुका है, आप प्रभु भक्ति के द्वारा उसे पुनः प्राप्त कर सकते हैं। भावपूर्ण प्रार्थना करना एक विचित्र संबल देता है। हम मंत्रबल को भी विस्मृत कर चुके हैं। मंत्रजप से अद्भुत शक्तियाँ जाग जाती हैं। दो-चार दिन श्रद्धापूर्वक एक मंत्र का जप करके ही हमें इसका अनुभव हो सकता है। मन्त्रजप के सहारे सारी भीतरी कुण्ठाएं परिसमाप्त हो सकती हैं तथा नूतन शक्तियों का प्रादुर्भाव हो सकता है। खेद, हम ईश्वरीय शक्तियों को भुला बैठे हैं। जरा मन के द्वार खोलें! शक्ति का एक असीम, अथाह भण्डार हमारे भीतर सुरक्षित हैं। हमें उससे संबंध जोड़ने की आवश्यकता है। सर्वशक्तिमान् परमेश्वर असीम शक्ति का अक्षय स्रोत हैं। हमें प्रभु की दयामयता में दृढ़ आस्था रखनी चाहिए। प्रभु की सजीव उपस्थिति को अपने चारों ओर देखना और अनुभव करना चाहिए। ईश्वरीय शक्ति में आस्था रखना कठिन हैं, किंतु उसके लाभ अकल्पनीय होते हैं। हम उसके साथ संबंध जोड़कर शक्ति एवं शान्ति पाने के अधिकारी हैं। पिता की विरासत पुत्रों को सुलभ हो सकती है; किंतु हम नाता तो जोड़ें।
जीवन में पल-पल नव-निर्माण हो रहा है। उत्साह की तरंगों से मन को तरंगित एवं आप्लावित कर दें। निराशा हमारे स्वभाव का अंग नहीं है, विजातीय हैं। निराशा को भगाओ, आशा को जगाओ, आज और अभी जगाओ। जीवन का यही संदेश है। हमारे मन में कोई पुकार-पुकार कह रहा है कि मानव को जीवन सुख से रहने के लिए मिला है, सुख मानव का जन्मसिद्ध अधिकार है। यह सृष्टि सुखप्रधान हैं, दुःखप्रधान नहीं है और मानव न केवल स्वभाव से सुख चाहता है, वह सुख पाने में सक्षम भी है। सुखवृत्ति को ठीक प्रकार से जगाकर मनुष्य खोये हुए सुख को पुनः पा सकता है।
जीवन एक सुनहला वरदान है। मानव को स्वस्थ एवं सुखी रहने के लि

Saturday, June 11, 2011

ॐ सांई आसारामजी बापू!!!

ॐ सांई आसारामजी बापू!!!

नाज़ करूँ मैं खुद पर सांई,
सब कुछ वार दूँ तुझ पर सांई,
जब से प्यार मिला तेरा,
सुंदर दीदार मिला तेरा,
सब कुछ पा लिया मैने सांई ,
दिल गद गद हो गया मेरा,
हे सांई,पाया दीदार जब से तेरा,
अब और कुछ रही ना इस मन की चाह,
सांई मैं दूँ सब कुछ तुझ पर वार,
किया तूने हम पतितो का उद्धार,
परमेश्वर ,तेरे इस रूप को,
मेरा करोङो बार नमस्कार, नमस्कार, नमस्कार~~~

ॐ सांई आसारामजी बापू!!!

Friday, June 10, 2011

गुरु स्तुति

गुरु स्तुति~~~

गुरु मेरी पूजा , गुरु गोविन्द ~~
गुरु मेरा पार ब्रह्म , गुरु भगवंत~~

गुरु मेरा देऊ , अलख अभेऊ , सर्व पूज चरण गुरु सेवऊ
गुरु मेरी पूजा , गुरु गोविन्द , गुरु मेरा पार ब्रह्म , गुरु भगवंत~~

गुरु का दर्शन .... देख - देख जीवां , गुरु के चरण धोये -धोये पीवां~~

गुरु बिन अवर नही मैं ठाऊँ , अनबिन जपऊ गुरु गुरु नाऊँ
गुरु मेरी पूजा , गुरु गोविन्द , गुरु मेरा पार ब्रह्म , गुरु भगवंत~~

गुरु मेरा ज्ञान , गुरु हिरदय ध्यान , गुरु गोपाल पुरख भगवान्
गुरु मेरी पूजा , गुरु गोविन्द , गुरु मेरा पार ब्रह्म , गुरु भगवंत~~

ऐसे गुरु को बल-बल जाइये .. आप मुक्त मोहे तारें~~

गुरु की शरण रहो कर जोड़े , गुरु बिना मैं नही होर
गुरु मेरी पूजा , गुरु गोविन्द , गुरु मेरा पार ब्रह्म , गुरु भगवंत~~

गुरु बहुत तारे भव पार , गुरु सेवा जम से छुटकार
गुरु मेरी पूजा , गुरु गोविन्द , गुरु मेरा पार ब्रह्म , गुरु भगवंत~~

अंधकार में गुरु मंत्र उजारा , गुरु के संग सजल निस्तारा
गुरु मेरी पूजा , गुरु गोविन्द , गुरु मेरा पार ब्रह्म , गुरु भगवंत~~

गुरु पूरा पाईया बडभागी , गुरु की सेवा जिथ ना लागी
गुरु मेरी पूजा , गुरु गोविन्द , गुरु मेरा पार ब्रह्म , गुरु भगवंत~~

बापू तुम्हारे चरणों मे

श्री बापू तुम्हारे चरणों मे, एकबार ठिकाना मिल जाये...
मैं जनम जनम गुण गाऊँगा, जीवन की बगिया खिल जाये...

भटको को राह दिखाते हो, हारे का साथ निभाते हो...
मैं हार गया खुद से मोहन, मुझे तेरा सहारा मिल जाये...
...
बिन तेरे सहारे साँवरिया, कोई खुद से नहीं लड़ सकता है...
तू जिसपर महर करे भगवन, वो जग मे निर्भय हो जाये...

मै जनम जनम गुण गाऊँगा, जीवन की बगिया खिल जाये...
श्री बापू तुम्हारे चरणों मे, एकबार ठिकाना मिल जाये...

Sunday, June 5, 2011

श्रद्धा के साथ गुरु

तेरी मौजूदगी का हर पल दवा होता है
तेरी मज़िल पे रखा हर कदम सवा होता है
जो जीता है तेरी महफिलों के सदके में
वह बुजुर्गवार भी नौज़वान होता है
तू झौंक दे अपनी इबादत का सुरूर
इसी आदत से अल्लाह महरबान होता है
“सभी को समर्पण और सद्भावना कि बधाइयाँ “
जो व्यक्ति श्रद्धा के साथ गुरु के शरणागत होकर अपने धर्म को जानकर अपने धर्म का आचरण करते हैं केवल वही व्यक्ति सभी पाप कर्मों से बच पाता है, धर्म पालन के बिना पाप कर्मों से बच पाना असंभव है।