Thursday, March 22, 2012

अहंकार

मैं लोगो को मंदिर जाते देखता हूँ :मैं उनको पूजा-आराधना करते देखता हूँ :मैं उन्हें ध्यान में बैठे देखता हूँ. . .पर यह सब उनके लिए क्रिया है. . . . . एक तनाव है ....एक अशांति है, और फिर वे इस अशांति में शांति के फूल लगने की आशा करते है, तो भूल में है !
सत्य को खोजे नहीं ! खोजने में अहंकार है ! और अहंकार ही तो बाधा है अपने को खो दे ! मिट जाए ! जब 'मैं=भाव' मिटता है, तब 'मैं-सत्ता ' मिलती है !........जैसे बीज जब अपने को तोड़ देता है,और मिटा देता है, तभी उसमें नवजीवन अंकुरित होता है, वैसे ही 'मैं' बीज है, वह आत्मा का बाहरी आवरण और खोल है, वह जब मिट जाता है तब अमृत जीवन के अंकुर का जन्म होता है ! 

Wednesday, March 21, 2012

मैं हूँ

क्या मैं आप से पुछू कि जिसे आप खोज रहे है, क्या वह आप से दूर है ? जो दूर हो उसे खोजा जा सकता है, पर जो स्वयं आप हो, उसे कैसे खोजा जा सकता है ? 
जिस अर्थ में शेष सब खोजा जा सकता है, स्व उसी अर्थ में नहीं खोजा जा सकता है ! वहाँ जो खोज रहा है, और जिसे खोज रहा है, उन दोनों में दूरी जो नहीं है ! संसार की खोज होती है, स्वयं की खोज नहीं होती है ! और जो स्वयं को खोजने निकल पड़ते है, वे स्वयं से और दूर ही निकल जाते है ! 
यह सत्य ठीक से समझ लेना आवश्यक है, तो खोज हो भी सकती है ! संसार को पाना हो तो बाहर खोजना पड़ता है और यदि स्वयं को पाना हो तो सब खोज छोड़ कर अनुदिव्ग्न और स्थिर होना पड़ता है ! उस पूर्ण शांति और शून्य में ही उसका दर्शन होता है, जो कि मैं हूँ ! 

Saturday, March 17, 2012

सत्य


सत्य तो नहीं सिखाया जा सकता पर सत्य को जानने कि विधि सिखाई जा सकती है ! .......इस विधि की कोई चर्चा नहीं है ! सत्य की चर्चा तो बहुत है ! पर सत्य-दर्शन की विधि की चर्चा नहीं है !
इस से बड़ी भूल नहीं हो सकती है !
यह तो प्राण को छोड़ देह को पकड लेने जैसा ही है ! इसके परिणाम स्वरूप ही धर्म तो बहुत है, धार्मिकता धर्म नहीं है ! आज जो संप्रदाय धर्म के नाम पर चलते दीख रहे है, वे धर्म नहीं है ! धर्म तो एक ही हो सकता है ! उसमे विशेषण नहीं लग सकता ! वह तो विशेषणशून्य है !
धर्म यानि धर्म वह 'यह' धर्म और 'वह' धर्म नहीं हो सकता है !
जहाँ 'यह' और 'वह' है, वहां धर्म नही है !

Friday, March 16, 2012

दर्शन की शक्ति


जो दृष्टा है, जो दर्शन की शक्ति है, उसका स्वयं दृश्य की भांति दर्शन नहीं हो सकता है ! विषय (Subject) कभी भी विषयी (Object) में परिणत और पतित नहीं हो सकता ! यह सरल सी, सीधी सी बात ध्यान में न आने से सारी भूल हो गई है ! परमात्मा की खोज होती है, जैसे वह कोई बाह्रा वस्तु है ! उसे पाने के लिए पर्वतो और वनों की यात्राये होती है, जैसे वह कोई बाह्रा व्यक्ति है ! यह सब कैसा पागलपन है ? उसे खोजना नहीं है, जो खोज रहा है, उसे ही जानने से वह मिल जाता है ! वह वही है ! खोज में नहीं, खोजने वाले में ही वह छिपा है !
सत्य आपके भीतर है ! सत्य मेरे भीतर है ! वह कल आपके भीतर नहीं होगा, वह इसी क्षण अभी और यही आपके भीतर है ! मैं हूँ यह होना ही मेरा सत्य है ! और जो भी मैं देख रहा हूँ, वह हो सकता है कि सत्य न हो, हो सकता है कि वह सब स्वप्न ही हो, क्योंकि मैं स्वप्न भी देखता हूँ और देखते समय वे सब सत्य ही ज्ञात होते है ! यह सब दिखाई पड़ रहा संसार भी स्वप्न ही हो सकता है ! आप मेरे लिए स्वप्न हो सकते है ! हो सकता है कि मैं स्वप्न में हूँ और आप उपस्थित नहीं है ! लेकिन देखने वाला दृष्टा असत्य नहीं हो सकता है ! वह स्वप्न नहीं हो सकता है, अन्यथा स्वप्न देखना उसे संभव नहीं हो सकता था !

Tuesday, March 13, 2012

शान्त परिस्थिति

इस शान्त परिस्थिति में......और आप को इस शान्त मन:स्थिति में मैं अवश्य ही वह कह सकूंगा. . .जो मैं कहना चाहता हूँ कि सबको कह दूँ, लेकिन बहरे हृदयों को देखकर अपने को रोक लेना पड़ता है !
सत्य की साधना के लिये चित्त की भूमि वैसे ही तैयार करनी होती है, जैसे फूलो को बोने के लिये पहले भूमि को तैयार किया जाता है !
पहला सूत्र: वर्तमान में जीना ! (Living in the Present) अतीत और भविष्य के चिंतन की यांत्रिक धारा में न बहे ! उसके कारण वर्तमान का जीवित क्षण (Living moment) व्यर्थ ही निकल जाता है ! जबकि केवल वही वास्तविक है ! न अतीत की कोई सत्ता है, न भविष्य की ! एक स्मृति में है, एक कल्पना में ! वास्तविक और जीवन केवल वर्तमान है ! सत्य को यदि जाना जा सकता है, तो केवल वर्तमान में होकर ही जाना जा सकता है !