Wednesday, February 8, 2012

भगवान् के दर्शन कैसे होते है ?

* यह 'दर्शन' शब्द भ्रामक है ! इससे ऐसा प्रतिध्वनित होता है कि जैसे भगवान् कोई व्यक्ति है, जिसका दर्शन होगा और ऐसे ही 'भगवान्' शब्द ही व्यक्ति भ्रम देता है ! भगवन कोई नहीं है, केवल भगवान् है ! व्यक्ति नहीं है, शक्ति है ! शक्ति का अनंत सागर है : चैतन्य का अनंत सागर है...वही सब रूपों में अभिव्यक्त हो रहा है ! वह भगवान् सृष्टा (Creater) की भांति अलग नहीं है....! वही है सृष्टि.......वही है सृजनात्मकता (Creativity) जीवन वही है ! 'अहम' (EGO) से घिरकर हम इस 'जीवन' (Life) से भिन्न होने का आभास कर लेते है ! वही प्रभु से हमारी दुरी है; यूँ वस्तुत: दुरी असंभव है ! अहम् से, 'मैं, से पैदा हुआ आभास ही दुरी है ! यह दुरी अज्ञान है : वस्तुत: दुरी नहीं है, अज्ञान ही दुरी है ! 'मैं' मिट जाये तो अनंत अपरिसीम सृजनात्मक जीवनशक्ति का अनुभव होता है........वही भगवान् है ! 'मैं' की शुन्यता पर जो अनुभव है, वही ' भगवान् ' का दर्शन है ! मैं क्या देख रहा हूँ कि 'मैं' कही भी नहीं है.......और जो सागर की लहरों में है वही मुझमें है' जो स्वयं बसंत में नयी फूटती कोपलो में है, वही मुझमे है, जो पतझर में गिरे पत्तो में है, वही मुझमें है...मैं विश्वसत्ता से कही भी टुटा और पृथक नहीं हूँ : उसमें हूँ, वही हूँ....यही अनुभव प्रभु--साक्षात् है !

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