Friday, March 16, 2012

दर्शन की शक्ति


जो दृष्टा है, जो दर्शन की शक्ति है, उसका स्वयं दृश्य की भांति दर्शन नहीं हो सकता है ! विषय (Subject) कभी भी विषयी (Object) में परिणत और पतित नहीं हो सकता ! यह सरल सी, सीधी सी बात ध्यान में न आने से सारी भूल हो गई है ! परमात्मा की खोज होती है, जैसे वह कोई बाह्रा वस्तु है ! उसे पाने के लिए पर्वतो और वनों की यात्राये होती है, जैसे वह कोई बाह्रा व्यक्ति है ! यह सब कैसा पागलपन है ? उसे खोजना नहीं है, जो खोज रहा है, उसे ही जानने से वह मिल जाता है ! वह वही है ! खोज में नहीं, खोजने वाले में ही वह छिपा है !
सत्य आपके भीतर है ! सत्य मेरे भीतर है ! वह कल आपके भीतर नहीं होगा, वह इसी क्षण अभी और यही आपके भीतर है ! मैं हूँ यह होना ही मेरा सत्य है ! और जो भी मैं देख रहा हूँ, वह हो सकता है कि सत्य न हो, हो सकता है कि वह सब स्वप्न ही हो, क्योंकि मैं स्वप्न भी देखता हूँ और देखते समय वे सब सत्य ही ज्ञात होते है ! यह सब दिखाई पड़ रहा संसार भी स्वप्न ही हो सकता है ! आप मेरे लिए स्वप्न हो सकते है ! हो सकता है कि मैं स्वप्न में हूँ और आप उपस्थित नहीं है ! लेकिन देखने वाला दृष्टा असत्य नहीं हो सकता है ! वह स्वप्न नहीं हो सकता है, अन्यथा स्वप्न देखना उसे संभव नहीं हो सकता था !

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