Saturday, March 19, 2011

॥ हरि ॐ तत सत ॥


जय श्री कृष्ण,

॥ अहंकार क्या है? ॥

भगवान श्री कृष्ण कहते हैं....

मम योनिर्महद्ब्रह्म तस्मिन्गर्भं दधाम्यहम्‌ ।
सम्भवः सर्वभूतानां ततो भवति भारत ॥
(गीता १४/३)
मेरी यह आठ तत्वों वाली जड़ प्रकृति (जल, अग्नि, वायु, पृथ्वी, आकाश, मन,
बुद्धि और अहंकार) ही समस्त वस्तुओं को उत्पन्न करने वाली माता है और मैं ही
ब्रह्म रूप में चेतन-रूपी बीज को स्थापित करता हूँ, इस जड़-चेतन के संयोग से ही
सभी चर-अचर प्राणीयों का जन्म सम्भव होता है।

संसार प्रकृति के आठ जड़ तत्वों (पाँच स्थूल तत्व और तीन दिव्य तत्व) से मिलकर
बना है।

स्थूल तत्व = जल, अग्नि, वायु, पृथ्वी और आकाश।
दिव्य तत्व = बुद्धि, मन और अहंकार।

हमारे स्वयं के दो रूप होते हैं एक बाहरी दिखावटी रूप जिसे स्थूल शरीर कहते हैं
और दूसरा आन्तरिक वास्तविक दिव्य रूप जिसे जीव कहते हैं। बाहरी शरीर रूप स्थूल
तत्वों के द्वारा निर्मित होता है और हमारा आन्तरिक जीव रूप दिव्य तत्वों के
द्वारा निर्मित होता है।

जीव को अपना आध्यात्मिक उत्थान करने के लिये सबसे पहले बुद्धि तत्व के द्वारा
अहंकार तत्व को जानना होता है, अहंकार तत्व है जो शरीर में रहते हुए कभी समाप्त
नहीं हो सकता है।

(अहंकार = अहं + आकार = स्वयं का रूप) स्वयं के रूप को ही अहंकार कहते हैं।
शरीर को अपना वास्तविक रूप समझना मिथ्या अहंकार कहलाता है और जीव रूप को अपना
समझना शाश्वत अहंकार कहलाता है। प्रत्येक जीव को अपने भाव के द्वारा मिथ्या
अहंकार को शाश्वत अहंकार में परिवर्तित करना होता है।

जब तक मनुष्य बुद्धि के द्वारा अपनी पहिचान स्थूल शरीर रूप में करता है और शरीर
को ही कर्ता समझता है तब वह मिथ्या अहंकार (शरीर को स्वयं समझना) से ग्रसित
रहता है तब तक सभी मनुष्य अज्ञान में ही रहते है। इस प्रकार अज्ञान से आवृत
होने के कारण तब तक सभी जीव अचेत अवस्था (बेहोशी की हालत) में ही रहते हैं
उन्हे मालूम ही नही होता है कि वह क्या कर रहें हैं और उन्हे क्या करना चाहिये।


जब कोई मनुष्य भगवान की कृपा से निरन्तर किसी तत्वदर्शी संत के सम्पर्क में
रहता है तब वह मनुष्य सचेत अवस्था (होश की हालत) में आने लगता है, तब वह अपनी
पहिचान जीव रूप से करने लगता है तब उसका मिथ्या अहंकार मिटने लगता है और शाश्वत
अहंकार (जीव स्वरूप को स्वयं समझना) में परिवर्तित होने लगता है यहीं से उसका
अज्ञान दूर होने लगता है।

इसका अर्थ है कि हमारे दोनों स्वरूप ज़ड़ ही हैं। जब पूर्ण चेतन स्वरूप
परमात्मा का आंशिक चेतन अंश आत्मा जब जीव से संयुक्त होता है तो दोनों रूपों
में चेतनता आ जाती है जिससे ज़ड़ प्रकृति भी चेतन हो जाती है इस प्रकार ज़ड़ और
चेतन का संयोग ही सृष्टि कहलाती है।

भगवान की यह दो प्रमुख शक्तियाँ एक ज़ड़ शक्ति जिसमें जीव भी शामिल है "अपरा
शक्ति" कहते हैं, दूसरी चेतन शक्ति यानि आत्मा "परा शक्ति" कहते हैं। यही अपरा
और परा शक्ति के संयोग से ही सम्पूर्ण सृष्टि का संचालन सुचारु रूप से चलता
रहता है।

मिथ्या अहंकार के कारण ही जीव बार-बार जन्म और मृत्यु को प्राप्त होता रहता है,
मिथ्या अंहकार का मिटना ही मुक्ति है।

॥ हरि ॐ तत सत ॥

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