Thursday, March 31, 2011

ऐ दूर जाती हवाओं

ऐ दूर जाती हवाओं ,
धूप कि छटाओं..
बादलों कि गुफ्तगूं करती सभाओं
और रात-रानिओं कि महकती फिजाओं
सुनो मेरा एक सन्देश है
इस धरती पर एक देश है
जिसमे भिन्न भिन्न भेष हैं
वे बाहर से योगी और अंदर से भोगी हैं
उनमे “मैं” कि अभूतपूर्व छटा है
हृदय “काम “ से पटा है
उन्हें अपनी प्राचीनता पर गर्व है
किन्तु लुटते, लुटाते अर्वाचीनता पर सर्व हैं
अध्यात्म कि प्रधानता ऐसा वे कहते हैं
किन्तु हमेशा विज्ञान में रत रहते हैं
यह उनसे बार बार कहना ,प्रति पल ,प्रति क्षण कहना
उसका सर्वस्वा उसकी सरलता है
प्रेम और मित्रता है उसका गहना
ध्यान उसके रोम रोम में विद्यमान है
किन्तु इस बात का उसे परम अभिमान है
यह बात उससे बार बार कहना
जागें उसी क्षण हो जाता है सवेरा
बहुत हो चुका रैन बसेरा
बाहों में भरने को तुम्हे बैठा है अलौकिक
और तुम्हे तिरस्कृत करता है लौकिक
यह सन्देश मेरा तुम प्रति पल कहना !!

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