Monday, October 24, 2011

संसार के रचयिता को

जब हम अपने को उन्हें (संसार के रचयिता को) इस भाव से देते हैं कि तेरा तुझको देता हूँ, यद्यपि यह तेरा है, लेकिन इस समय मेरा है । अब में तेरा दिया हुआ तुझको देता हूँ । तब वे स्वयं बड़े अधीर होने लगते हैं, आकुल-व्याकुल होने लगते हैं कि मैंने मानव को सब कुछ पहले ही दे दिया, अब मेरे पास क्या रह गया है कि जिससे में इसका बदला चूका सकूँ । मानव ने मेरा दिया हुआ अब मुझे दे दिया है । तब उनसे नहीं रहा जाता और वे कहने लगते हैं - में तेरा हूँ, में तेरा हूँ । जब प्रेमीजनों को उनकी यह आवाज सुनाई देती है, तो प्रेमीजन कहने लगते हैं - तुम्हीं हो, तुम्हीं हो, हर समय तुम्हीं हो, तुम्हीं मेरे जीवन हो, प्राणधन हो, प्राणेश्वर हो, प्राणवल्लभ हो, प्राणप्रिय हो, तुम्हीं हो, तुम्हीं हो । जब वे यह सुनते हैं, तब वे स्वयं कहने लगते हैं - नहीं-नहीं, मैं तेरा हूँ, मैं तेरा हूँ । यहाँ तक कहने लगते हैं कि तुने जो किया है, वह कोई नहीं कर सकता ।

क्या दिया है तुने ? तुने अपने को मुझ पर न्यौछावर किया है, अपने आपको मेरे लिए खो दिया है । अब तो मैं तेरा ऋणी हूँ । तब प्रेमीजन कहने लगते हैं कि मेरा तो कभी कुछ था नहीं, तुम्हारा ही था और तुम्हीं थे, तुम्हीं हो, जो आकर्षण है वह तुम्हारा ही है, सब कुछ तुम्हीं से हुआ है, सब कुछ तुम्हीं में है । ऐसा जो प्रीति और प्रियतम का नित्य विहार है, यही मानव का निज-जीवन है ।

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