Tuesday, October 4, 2011

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जय श्रीमन्नारायण,
 धर्म मानव कि एक आवश्यकता है, धर्म किसी के विचारों का गुलाम नहीं है | धर्म किसी एक मत, पंथ या संप्रदाय का गुलाम नहीं हैं | भोजन से भी ज्यादा आवश्यक है, धर्म ! धर्म कहने मात्र से पूरा नहीं होता, वरन धर्म एक कर्तब्य है | जिसे करना पड़ता है, कहना क्या है, जैसे -- हरि ब्यापक सर्वत्र समाना | ये कथनी हुआ ! लेकिन इसी को जब अपने आचरण में उतारने का हम प्रयास करते हैं, तो हमें पता चलता है | और जबतक हम अपने आचरण में उतारते नहीं यह धर्म नहीं कहा जायेगा | 

इसी तरह धर्म कि जो अनेकानेक परिभाषाएं आज प्रचलित हैं | अधिकांशतः ये परिभाषाये धर्म के मार्ग का सबसे बड़ा रोड़ा है, जिसे अधर्म कहना अतिशयोक्ति नहीं होगा | जैसे:-- एक यजमान पंडित जी के पास पहुंचा, और बोला --- सच्चे ब्राह्मण मिलते कहाँ हैं महाराज | जो दक्षिणा के लिए मुंह ना खोले वही सच्चा ब्राह्मण है, लेकिन आज तो बाजार बन गया है | इस बात को सुनकर ब्राह्मण को लगा कि कहीं सच में हम बाजारू तो नहीं हो गए | तो उसने कहा अब आज से दक्षिणा मांगना बंद | थोड़े दिनों बाद फिर से वही यजमान आया महाराज पूजा करवाना है, क्या दक्षिणा लेते हैं | ब्राह्मण ने कहा नहीं भाई जी मैं तो दक्षिणा मांगता नहीं हूँ, जो मिल जाये उसी से गुजर-बसर कर लेता हूँ | उसने कहा महाराज आप महान हैं, आपके दर्शन से धन्य हो गया मैं |

वो इन्सान पूजा कराया और दक्षिणा दिया आज के ज़माने में ५१/- मुंबई जैसे शहर में | दो-चार महीने में पंडित जी कि बोरिया बिस्तर बंधी और गाँव | क्योंकि खर्चा चलाना मुश्किल है, इस महंगाई के ज़माने में | अब आप बताइए इसे धर्म कहेंगे अथवा अधर्म ! ये उस यजमान के द्वारा पाप हुआ या पुण्य | हम या तो दिखावे के लिए धर्म करते हैं, या मजबूरी में अपनी मान्यताओं के आधार पर या तो फिर रूढ़िवादिता के वजह से | सच्चे मायने में धर्म कि परिभाषा क्या है, इसका निर्धारण समय परिस्थिति और  समाज के आधार पर किया जाना चाहिए | जो आज तक होते आया है, और होना भी चाहिए | वरना एकम सद विप्रा बहुधा वदन्ति | धरम न दुसर सत्य समाना ! आगम निगम पुराण बखाना | सत्य बोलो धर्म कि दूसरी कोई परिभाषा जानने कि कोई आवश्यकता ही नहीं है ||

|| जय श्रीमन्नारायण ||

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