Friday, May 6, 2011

हे करुणा सागर

हे परम प्रियतम पूर्णतम पुरुषोत्तम श्रीकृष्ण!
तुमसे विमुख होनेके कारण अनादिकालसे हमने अनन्तानन्त दुःख पाये एवम पा रहे
हैं। पाप करते-करते अन्तःकरण इतना मलिन हो चुका है कि रसिकों द्वारा यह
जाननेपर भी कि तुम अपनी भुजाओंको पसारे अपनी वात्सल्यमयी-दृष्टसे हमारी
प्रतीक्षा कर रहे हो, तुम्हारी शरणमें नहीं आ पाता।

हे अशरण शरण!
तुम्हारी कृपाके बिना तुम्हें कोई जान भी तो नही सकता। ऐसी स्थितिमें हे
अकारण करुण! पतितपावन श्रीकृष्ण! तुम अपनी अहैतुकी कृपासे ही हमे अपना लो।

हे करुणा सागर! हम भुक्ति-मुक्ति आदि कुछ नहीं माँगते, हमे तो केवल
तुम्हारे निष्काम प्रेमकी ही एकमात्र चाह है।

हे नाथ! अपने विरदकी ओर देखकर इस अधमको निराश न करो।

हे जीवनधन! अब बहुत हो चुका, अब तो तुम्हारे प्रेमके बिना यह जीवन
मृत्युसे भी अधिक भयानक है। अतएव-

प्रेम भिक्षां देहि!!प्रेम भिक्षां देहि!!प्रेम भिक्षां देहि!

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