Monday, May 30, 2011

॥ कर्म के सिद्धान्त ॥

जय श्री कृष्णा....



असतो मा सदगमय = असत्य से सत्य की ओर चलें = संसार से ईश्वर की ओर चलें।

गीता के अनुसार कर्म के सिद्धान्त के अन्तर्गत धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष चारों पुरुषार्थों का निष्काम भाव से पालन करना ही भगवान की भक्ति कहलाती है।

१. धर्मः- शास्त्रों के अनुसार कर्म करना "धर्म" कहलाता है, शास्त्रों में वर्णित प्रत्येक व्यक्ति के अपने "नियत कर्म यानि कर्तव्य-कर्म" (देश, समय, स्थान, वर्ण और वर्णाश्रम के अनुसार) करना ही धर्म कहलाता है, स्वधर्म प्रत्येक व्यक्ति का अलग-अलग और निजी होता है।

भगवान श्री कृष्ण गीता में कहते हैं........

श्रेयान्स्वधर्मो विगुणः परधर्मात्स्वनुष्ठितात्‌ ।
स्वधर्मे निधनं श्रेयः परधर्मो भयावहः ॥ (गीता ३/३५)

"दूसरों के कर्तव्य-कर्म (धर्म) को भली-भाँति अनुसरण (नकल) करने की अपेक्षा अपना कर्तव्य-कर्म (स्वधर्म) को दोष-पूर्ण ढंग से करना भी अधिक कल्याणकारी होता है। दूसरे के कर्तव्य का अनुसरण करने से भय उत्पन्न होता है, अपने कर्तव्य का पालन करते हुए मरना भी श्रेयस्कर होता है।"

२. अर्थः- धर्मानुसार धन का संग्रह करना ही "अर्थ" कहलाता है, किसी को भी कष्ट दिये बिना आवश्यकता के अनुसार धन का संग्रह करना अर्थ कहलाता है, अर्थ का संग्रह आवश्यकता के अनुसार ही करना चाहिये, आवश्यकता से अधिक धन से दोष-युक्त कामनायें और विकार उत्पन्न होते हैं।

३. कामः- धर्मानुसार कामनाओं की पूर्ति करना ही "काम" कहलाता है, शास्त्रों के अनुसार कामनाओं की पूर्ति करने से ही सभी भौतिक कामनायें मिट पाती हैं, कामनाओं की पूर्ति में ही कामनाओं का अन्त छिपा होता है, जब सभी कर्तव्य-कर्म पूर्ण हो जाते हैं तब जीव भगवान की कृपा का पात्र बन पाता है, तभी भगवान की कृपा प्राप्त होती है।

४. मोक्षः- धर्मानुसार सभी कामनाओं का सहज भाव से त्याग हो जाना ही "मोक्ष" कहलाता है, भगवान की कृपा प्राप्त होने पर ही सम्पूर्ण समर्पण के साथ ही सभी सांसारिक कामनाओं का अन्त हो पाता है, तभी जीव को भगवान की अनन्य भक्ति प्राप्त होती है, जिसे प्राप्त करके जीव परमानन्द स्वरूप परमात्मा में स्थित होकर परमगति को प्राप्त हो जाता है।

जो व्यक्ति धैर्य और विश्वास के साथ ईश्वर पर आश्रित होकर मनुष्य जीवन के चारों पुरुषार्थों का क्रमशः पालन करता है वही परमगति प्राप्त हो पाता है।

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