Sunday, August 7, 2011

आज के संदर्भ में

तुलसीदासः आज के संदर्भ में‘ - पुस्तक में युगेश्वर जी ने उचित ही कहा है कि राष्ट्र की भावात्मक एकता के लिए जिस उदात्त चरित्र की आवश्यकता है, वह रामकथा में है। मानस एक ऐसा वाग्द्वार है जहाँ समस्त भारतीय साधना और ज्ञान परम्परा प्रत्यक्ष दीख पडती है। दूसरी ओर देशकाल से परेशान, दुःखी और टूटे मनों का सहारा तथा संदेश देने की अद्भुत क्षमता है। आज भी करोडों मनों का यह सहारा है।
’रामचरितमानस‘ के संदेश को केवल भारत तक सीमित स्वीकृत करना इस महान् ग्रंथ के साथ अन्याय होगा। ’रामचरितमानस‘ युगवाणी है। विश्व का एक ऐसा विशिष्ट महाकाव्य जो आधुनिक काल में भी ऊर्ध्वगामी जीवनदृष्टि एवं व्यवहारधर्म तथा विश्वधर्म का पैगाम देता है। ’रामचरितमानस‘ अनुभवजन्य ज्ञान का ’अमरकोश‘ है।
आज का युग विज्ञान का युग है। विज्ञान ’क्या है‘ यह तो बता सकता है, यह किन्तु ’क्या होना चाहिए‘ और क्यों होना चाहिए‘ इस प्रकार के प्रश्नों को नहीं छूता। मानवजीवन के मूल्यों का विचार न कभी विज्ञान ने किया है न करेगा। विज्ञान केवल ज्ञेय वस्तु तक ही सीमित है।
वैज्ञानिक प्रगति ने आज के मानव जीवन को ’सुखी‘ बनाया है, किन्तु ’प्रसन्न‘ बनाया है ? खाने-पीने, रहने-सोने, उठने-बैठने जैसी साधारण-सी बातों को लेकर समस्याएँ पैदा हो रही हैं। भौतिकवाद ने मनुष्य को आत्मकेन्द्री बनाया है। त्याग के स्थान पर ’परिग्रह‘ का महत्त्व अत्र-तत्र-सर्वत्र दृष्टिगत होता है। इसका मूल कारण है अध्यात्म की विस्मृति अर्थात् मानवजीवन के शाश्वत मूल्यों की उपेक्षा। कवि भर्तृहरि के शब्दों में कहें तो मनुष्य भोगों को नहीं भोग रहा, भोग मनुष्यों का उपभोग कर रहे हैं। इस विकट परिस्थितियों का उपाय है निर्मल, तपोद्दीप्त एवं त्यागपूर्ण जीवनदृष्टि। आज ’कामराज्य‘, ’दामराज्य‘ और ’जामराज्य‘ (मद्यपान) ने मनुष्य जीवन को बुरी तरह घेर लिया है। विश्वबंधुत्व की भावना की विस्मृति विश्व को भयग्रस्त बना रही है।
’तुलसी के हिय हेरि‘ में तुलसी-साहित्य के मर्मज्ञ स्व. विष्णुकान्त शास्त्री जी ने ’आधुनिकता की चुनौती और तुलसीदास‘ शीर्षक अध्याय में कहा है कि तुलसीदास की विचारधारा का विपुलांश आज भी वरणीय है। श्रीराम सगुण या निर्गुण ब्रह्म, अवतार, विश्वरूप, चराचर व्यक्त जगत् या चाम मूल्यों की समष्टि और स्रोत-उन का जो भी रूप आप को ग्राह्य हो) के प्रति समर्पित, सेवाप्रधान, परहित निरत, आधि-व्याधि-उपाधि रहित जीवन, मन, वाणी और कर्म की एकता, उदार, परमत सहिष्णु, सत्यनिष्ठ, समन्वयी दृष्टि, अन्याय के प्रतिरोध के लिए वज्र - कठोर, प्रेम-करुणा के लिए कुसुम कोमल चित्त, गिरे हुए को उठाने और आगे बढने की प्रेरणा और आश्वासन, भोग की तुलना में तप को प्रधानता देने वाला विवेकपूर्ण संयत आचरण, दारिद्रय मुक्त, सुखी, सुशिक्षित, समृद्ध समतायुक्त समाज, साधुमत और लोकमत का समादर करनेवाला प्रजाहितैषी शासन-संक्षेप में यही आदर्श प्रस्तुत किया है, तुलसी की ’मंगल करनि, कलिमल हरनि‘-वाणी ने। क्या आधुनिकता इस को खारिज कर सकती है

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