Monday, August 15, 2011

ऋग्वेद संहिता:----

॥॥ अथ प्रथमं मण्डलम् ॥॥ {ऋषि - मधुछन्दा वैश्वामित्र | देवता -अग्नि | छंद - गायत्री }

१, ॐ अग्निमीळे पुरोहितं यज्ञस्य देवमृत्विजम् । होतारं रत्नधातमम् ॥१॥
अर्थ:-हे अग्निदेव हम आपके उस रूप कि स्तुति करते है, जिस रूप से आप, मन्त्र वाचक ब्राह्मणों के द्वारा, यजमान के निमित किए जाने वाले यज्ञ से प्रशन्न होकर, होतारं अर्थात-होता, अथवा यजमान को, रत्नों ( धन-धान्य ) से भर देते हैं | हमारा आपको कोटि-कोटि नमन ॥१॥

२, अग्निः पूर्वेभिर्ऋषिभिरीड्यो नूतनैरुत् । स देवाँ एह वक्षति ॥२॥
अर्थ:- आप वही अग्नि देव हैं, जो पूर्व काल में भृगु, अंगिरा आदि ऋषियों द्वारा प्रशंसित हैं | और आधुनिक काल में भी वेदज्ञ विद्वानों द्वारा स्तुत्य हैं, अत: आपसे मेरी प्रार्थना है,कि मेरे सभी मित्रों, शत्रुओं, यजमानों और सगे-सम्बन्धियों के साथ विश्व कल्याण के निमित मेरे सुबह के यज्ञ में सभी देवों को बुलाएँ ॥२॥

३, अग्निना रयिमश्नवत् पोषमेव दिवेदिवे । यशसं वीरवत्तमम् ॥३॥
अर्थ:- हे अग्नि देव, आप सदा से ही हम ब्राह्मणों द्वारा स्तुति किए जाने पर, हमारे यजमानों, सगे-सम्बन्धियों, शत्रु-मित्र एवं सभी इष्ट मित्रों को, प्रतिदिन विवर्धमान( नित्य बढ़ने वाला ) धन, यश, पुत्र-पौत्र (कुल में वीर पुरुषों) को प्रदान करते आये हैं | अत: आज भी हम अपने उपरोक्त सभी लोगों के लिए इसी तरह के कल्याण कि याचना करते हैं, आप हमारी प्रार्थना सुनें ॥३॥

आज भी हम हमारे यहाँ यज्ञ, हवन, पूजा-पाठ करने किसी ब्राह्मण को बुलाते हैं, तो वो ब्राह्मण इन्हीं मन्त्रों को हमारे लिए उच्चारित करता है | जिन्हें न हम समझते हैं, और ना ही सभी कराने वाले ब्राह्मण |

अगर हम इन्हें समझ पाए तो कितनी ऊँची बात एक साधारण ब्राह्मण हमारे लिए बोलकर जाता है, जो शायद हम खुद हमारे लिए कभी नहीं बोल पाते |

एक ब्राह्मण में दुर्गुण कितने ही हो, हमारे लिए वो कल्याणकारी ही होता है ||||

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