Thursday, July 14, 2011

महामानव

महामानव - श्री चैतन्यमहाप्रभु एकबार भगवान श्री जगन्नाथ जी के दर्शन करके दक्षिण भारत की यात्रा करने निकले थे । उन्होने एक स्थान पर देखा कि सरोवर के किनारे एक ब्राह्मणदेवता भाव विभोर होकर श्रीभगवद्गीता का पाठ कर रहा है । पाठ करते समय उस ब्राह्मणदेव के आँखोँ से अश्रुधारा बह रही थी । महाप्रभु श्रीचैतन्य चुपचाप उस ब्राह्मणदेव के पीछे खड़े हो गये और जब तक उस ब्राह्मण का पाठ चलता रहा वे शान्त खड़े रहे ।
पाठ समाप्त करके जब उस बाह्मण ने श्री गीता जी की पुस्तक बन्द की , महाप्रभु जी ने सामने आकर ब्राह्मण से पुछा , ब्राह्मण देवता । लगता है आप संस्कृत नहीँ जानते , क्योँकि श्लोकोँ का उच्चारण आपका सही नहीँ हो रहा था । पर , गीता का ऐसा कौन - सा अर्थ आप समझते हैँ कि जिसके सुख मेँ आप इतने भावविभोर हो रहे थे ।
अपने सामने एक भव्य व्यक्तित्ववाले महापुरुष को देखकर ब्राह्मण ने उन्हे दण्डवत - प्रणाम किया । फिर हाथ जोड़ कर विनम्रतापूर्वक बोला , भगवन् । मैँ संस्कृत क्या जानूं और गीता का मुझे क पता ! मुझे पाठ करना आता नहीँ । मैँ तो जब इस ग्रन्थ को पढ़ने बैठता हूँ , तब मुझे लगता है कि कुरुक्षेत्र के मैदान मेँ दोनोँ ओर बड़ी भारी सेना सजी खड़ी है । दोनोँ सेनाओँ के मध्य एक रथ खड़ा है चार घोड़ोवाला । रथ के भीतर अर्जुन दोनोँ हाथ जोड़े बैठा है और रथ के आगे घोड़ो की रास पकड़े भगवान् श्री यशोदानन्दन श्रीकृष्ण बैठे हैँ । भगवान् श्रीयशोदानन्दन श्रीकृष्ण मुख पीछे घुमाकर अर्जुन से कुछ कह रहे हैँ , मुझे यह स्पष्ट दीखता है । भगवान् और अर्जुन की ओर देखकर मुझे प्रेम से रुलाई आ रही है । महाप्रभु ने कहा , - मेरे भैया । तुम्हीँ ने गीता का , जो चारवेदोँ और समस्त शास्त्रोँ का सार है , उसका सच्चा अर्थ तुम्हीँ ने जाना है । और गीता जी का पाठ करना तुम्हेँ आता है । तुम्हेँ सब प्राप्त हो गया । तु तत्त्वज्ञ है ।
श्री नारायण हरिः ।

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