Thursday, July 28, 2011

साधू कौन??


सामान्यतया भारत देश मे हर लाल कपडे पहने व्यक्ति को साधु कहा जाता है, दाढी बढी हो, लगोंट लगाकर घूम रहे हों, अन्य कोई विचित्र वेष हो जटाधारी हो या त्रिपुण्ड या उर्ध्वपुण्ड धारण किये हो साधु महात्मा बाबा जी सन्त आदि शब्दों से विभूषित हो जाता है पर क्या वो साधु हैं?किसको साधु कहें किसको न कहें कहा गया है! ना जाने किस वेश मे नारायण मिल जाये पर आखिर कैसे पहचान हो कि साधू है या असाधु!!

साधु वह है जो अन्तः स्वरूप बाह्यस्वरूप के सापेक्ष नहीं होते! वे किसी भी बाह्या मे हो सकतें हैं! लेकिन उनका अन्तःकरण अमित बोध वाला होता है! साधु ईश्वर के प्रति जिज्ञासा रखने वाला होता है! साधु शीलवान है अर्थात वह शील स्वभाव सदा प्रसन्न रहने वाला होता है!! साधु ईश्वर के द्वारा प्रदत्त प्रारब्ध के अनुसार प्राप्त वस्तुओं मे ही सन्तुष्ट रहने वाला श्री हरि के अहैतुकी कॄपा का स्मरण करके सदा आनन्द मग्न रहता है!! जो इन लक्षणों से वियुक्त हो कर आशा तॄष्णा आदि के चक्कर मे पड कर ईश्वर को भूल जाता है वह सांसारिक आध्यात्मिक सम्पदा से रहित अकिञ्चन धन दौलत पुत्र स्त्री आदि मकान घर गाडी आदि भौतिक पदार्थों मे आसक्त हो व्याकुल हो जाता है! इसलिये ईश्वर से दूर हो जाता है! वही सांसारिक है!! वैराग्य शतक मे भतृहरी ने कहा है! -

आशानाम नदी मनोरथजला तृष्णातरंगाकुला रागग्राहवती वितर्कविहगा धैर्यद्रुमध्वन्सिनी!!
मोहावर्तसुदुस्तरातिगहना प्रोतुंगचिन्तातटी तस्या पारगता विशुद्ध मनसो नन्दति योगीश्वराः!!


भर्तृहरि ने व्यक्ति की आशाओं की तुलना नदी से कर के बहुत सुन्दर उदाहरण दिया है कहते हैं कि आशा नामक एक नदी जो मनोरथ के जल से परिपूर्ण है जिसमे तृष्णा(लालच) रुपी तरंग से व्याकुल रहती है! उसमे राग(प्रेम) रूपी ग्राह का निवास है! तर्क वितर्क रूपी जलीय पक्षी उसमे निवास करते हैं उसमे उठनेवाली तृष्णा रूपी तरंग उसके किनारों पर स्थित धैर्यरूपी वॄक्ष को उखाड कर गिरा देते हैं! मोहरूपी भंवर इस नदी मे है और ये नदी बहुत ही गहरी है! इस नदी के चिन्ता रूपी तट इतने उंचे हैं कि उसको पार करना मुश्किल हो जाता है! लेकिन उसको कौन पार कर सकता है तो वो योगीश्वर इसको पार कर सकते हैं जो विशुद्ध मन वाले होते है! जिसको षड उर्मियां नही सताती जिसके कोई इच्छा नही जिसके कोई संकल्प नही ऐसे लोग सहज भाव से आशा नाम नदी को पार कर आनन्द या परम सुख प्राप्त कर लेते हैं इसके विपरीत जो इसमे फ़ंसा रहगया वो पीडित होता है! ऐसे पीडित को कभी साधू नही कहा जाता ऐसे तो सामान्य सांसारिक लोग होते हैं जिनके मन मे हो कि वो धन स्त्री ब्रह्मलोक, राजऐश्वर्य की चाहत होती है!!

अतः सद्भक्त हो, सबका भला चाहे! किसी से प्रेम, ईष्या या द्वेष न हो, सम्पत्ति का मोह, पारिवारिक मोह न हो जिसके लिये माटी और सोने मे अन्तर न हो! वह साधु है चाहे वो कैसा भी वस्त्र पहने या उसका कोई भी रूप मे क्यों न हो!!

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