Wednesday, June 15, 2011

पश्चात्ताप छोड़ दें

सब प्रकार के पश्चात्ताप छोड़ दें। भूलों पर पछतावा करते रहने से शक्ति कुण्ठित होती है। अपनी पुरानी भूलों को पाप की संज्ञा देकर अपने को पापी एवं कलंकित मान बैठना और आत्मग्लानि की दलदल में धँसे रहा महापाप है। भूतकाल को स्वप्न की भाँति मिथ्या समझकर उसके साथ अपना नाता तोड़ दीजिये और वर्तमान को उल्लासमय बनाने का सच्चा प्रयत्न कीजिए। भूल को स्वीकार करने से भूल का अन्त हो जाता है। हाँ, सत्पुरुष अपनी भूल को स्वीकार करने में नहीं हिचकता है, क्योंकि भूल स्वीकार करने से मन हलका होता है तथा सुधार प्रारंभ हो जाता है। भूल मानते ही गलत पग को पीछे हटा लेना तथा भूल करते न रहना शूरवीर का काम है। आगे सँभलकर चलें और आगे बढ़ें। पूर्ण कौन है? किससे कभी भूल नहीं होती? कौन सदैव सफल होता है? भूल अथवा विफलता हो गयी तो आत्मग्लानि की क्या बात है? 'बीती ताहि बिसारि दे, आगे की सुधि लेइ।' दूसरों के सामने रो-रोकर पुरानी भूलों के गीत गाने से भूलों के संस्कार दृढ़ होते हैं, शक्ति का ह्रास होता है तथा उत्साह का क्षय होता है। पुरानी भूलों के स्मरण में उलझे रहने से प्रगति ही अवरुद्ध हो जाती है। सच्चा पछतावा वह है जो दोष को भस्म करके शीघ्र ही स्वयं भी विलुप्त हो जाये तथा आप भविष्य के लिए संकल्प लेकर शांत एवं शीतल हो जायँ और तत्पश्चात् बार-बार भूलों को न याद करें, न दुःख मानें। ग्लैडस्टोन ने कहा था कि कोई मनुष्य बहुत-सी और बड़ी-बड़ी भूलें बिना किये हुए कभी बड़ा या भला नहीं बना। वास्तव में भूलों का अनुभव तो राह का प्रकाश बन जाता है। विश्वास कीजिये, प्रभु उन जघन्य अपराधों को भी क्षमा कर देते हैं जिन्हें मानव अक्षम्य समझता है, यदि आप सच्चे भाव से शरण में आकर पवित्र हो गये हैं।
'सरन गये प्रभु ताहु न त्यागा। विस्व द्रोह कृत अघ जेहि लागा॥'
प्रभु शरणागत भयहारी हैं।
'कोटि विप्र वध लागहिं जाहू। आये सरन तजउँ नहिं ताहू॥
सनमुख होहि जीव मोहि जबही। जन्म कोटि अघ नासहिं तबही॥'
जो व्यक्ति दूसरों को क्षमा कर देता है, वह भूल होने पर अपने को भी क्षमा कर सकता है। जो दूसरों को क्षमा नहीं कर सकता है, वह अपने को भी क्षमा नहीं करता है और वह जीवन को नरक बना लेता है। शोक, विषाद में पड़े रहना अविवेक का परिचायक है। विषाद की काली चादर को आपने स्वयं ही ओढ़ा है। आप इसे उतारकर फेंक सकते हैं। यदि सन्तों का भूलकाल दिव्य है तो कथातथित पापी का भविष्य भी दिव्य हो सकता है। पुराने अपराधों की स्मृति का विवेकपूर्ण शमन (दमन नहीं) करने से आप अतीत से मुक्त हो सकते हैं। सच्चा पछतावा वह है, जिससे निर्मल जीवन का उदय हो।
रोग होने पर रोग की चिन्ता करना उसे द्विगुणित कर देता है। रोग का उपाय अवश्य करना चाहिए, किंतु रोग का चिन्तन एवं उसकी बार-बार चर्चा करना और रोग से भयभीत होकर जीवन को सड़ा देना मूर्खता ही है। रोग के 'मूड' में रहने से रोग बढ़ता ही है। होम्योपैथी, एलोपैथी आदि से बढ़कर लाभकारी 'एपेथी' (रोग की परवाह न करना है) है।'राम कृपा नासहिं सब रोगा।' कुछ लोग नाजुक-मिजाजी में रोग बना रहना चाहते हैं। यह उनके लिए एक शान की बात होती है। ऐसे लोगों से सदा बचते रहें। उनके सम्पर्क से काल्पनिक रोग लगते हैं।'मेरे एक पूर्वज इसी रोग से मर गये थे'-ऐसा तर्क मूर्खतापूर्ण होता है। अमुक व्यक्ति जैसे रोग के लक्ष्ण कहीं मुझमें तो नहीं है, कहीं मुझमें भी वह रोग तो नहीं आने लगा है, इस प्रकार अपने को दूसरे रोगियों के समान रोगी समझने लगना अथवा रोग के लक्षणों की मिथ्या कल्पना करना भयंकर भूल है। यदि आप चिकित्सक नहीं है तो व्यर्थ ही रोगों की सविस्तार जानकारी करने का प्रयत्न न करें, क्योंकि रोगों की जानकारी करते हुए आप अपने भीतर भी रोगों की मिथ्या कल्पना कर सकते हैं। ऐसे चिकित्सक को दूर रखें जो रोग को 'भयंकर' कहकर उसे असाध्य बना देता है।'आप बहुत सोचते हैं, मन में ताना-बाना बुनते रहते हैं, आपको भारी हृदय-रोग हैं, आपकी चिकित्सा करना कठिन है'-इत्यादि बातें अविवेकी चिकित्सक कहते हैं। किसी रोगी से अपनी तुलना न करें, स्वस्थ व्यक्तियों से प्रेरणा लें। प्रत्येक व्यक्ति की स्थिति अलग-अलग होती है। आशा और विश्वास रखने से तथा प्रबल इच्छा-शक्ति से भयंकर रोग भी ठीक हो जाते हैं। अतः ऋणात्मक चिन्तन करना सर्वथा त्याज्य है। अपने स्वस्थ हो जाने में तथा स्वस्थ रहने में अनन्त और अखंड विश्वास रखें। जीवन के प्रति आस्था, उत्साह और विश्वास मनुष्य को सदा तरुण बनाये रखते हैं।

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