Wednesday, June 15, 2011

भाग्यशाली हैं

भाग्यशाली हैं वे लोग, जिन्हें चिन्ता करने को भी फुरसत नहीं मिलती और जो उत्तम लक्ष्यों की पूर्ति के लिए अपने जीवन को भी अल्प मानते हैं तथा अभागे हैं वे लोग, जो कार्य के अभाव में पर-निंदा जैसी विध्वंसात्मक बातों में तथा व्यसनों में समय नष्ट करते हैं या काल्पनिक दुखों में ही पड़े रहते हैं। व्यस्त रहनेवाले ही जीवन में कुछ कर पाते तथा व्यस्त रहनेवाले ही अधिक काम के लिए ही समय निकाल लेते हैं जब कि निठल्ले लोगों को आलस्य से ही फुरसत नहीं मिलती जिसे काम मिल गया, मानों उसे राम मिल गया। वास्तव में कार्य-भार हमें नहीं थकाता; अरुचि, चिन्ता और भय थकाते हैं। हाँ, आवश्यक दैनन्दिन कार्यों की सूची डायरी में लिख लेनी चाहिए तथा कार्य संपन्न होने पर उसे डायरी में काट देना चाहिए। मस्तिष्क पर फालतू बोझ नहीं डालना चाहिए।
हमें मित्रों के साथ तथा परिवार के बीचे में रहने के लिए भी कुछ समय अवश्य निकालना चाहिए, जब हम हास्य-विनोद और मनोरंजक चुटकुलों से मन को प्रफुल्ल कर सकें। परिवार एवं मित्रवर्ग के संग-साथ में कुछ समय देते रहने से उनके साथ सद्भावना बनी रहती है। परिवार एवं मित्रवर्ग के साथ सामंजस्य हुए बिना मनुष्य को बाह्य जगत् में सुयश पाकर भी कदापि शांति नहीं मिल सकती है। मित्र हमें फँसने और फिसलने से बचाता है और दुख में सच्चा सहारा होता है। प्रकृति के सम्पर्क में आना तथा कभी- कभी मित्रों अथवा परिवार के साथ भ्रमण और विहार के लिए कहीं दूर जाना खोयी हुई स्फूर्ति को पुनः वापस ला देता है।
हमारे व्यवहार में, विशेषतः हमारी उन्नति होने पर, अंहकार की दुर्गन्ध नहीं आनी चाहिए। हमारा विनम्र और मधुर व्यवहार हमें न केवल आदर-सत्कार सुलभ कर देगा, बल्कि हमें सुख और शांति भी प्रदान करेगा।
निर्धनता के कारण उत्पन्न हीन-भावना हमें सता सकती है। उसका उपाय पुरुषार्थ है। कल की चिन्ता तो न करें किंतु योजनापूर्वक पुरुषार्थ करें। आलस्य के कारण धन न कमाने पर, भूखे-नंगे रहकर दुर्दशा में पड़े रहना और दीनता को संयम अथवा सादगी कहना भयंकर भूल है।'नास्ति सिद्धिरकर्मणः।' बिना कर्म किये हुए, बिना पुरुषार्थ किये हुए, कोई सिद्धि नहीं होती है। भोगवृत्ति तो बुरी है, किंतु सबको मानसिक परिपक्वता के लिए आयु के अनुसार तथा सामाजिक स्तर के अनुरुप आवश्यक पदार्थों का उपलब्ध होना भी अभीष्ट होता है, अन्यथा हीनता की भावना आ घरेती है। हाँ, धीरे-धीरे भोगों में से गुजरकर भोग से त्याग की ओर बढ़ना तथा भोगों के आकर्षण से छूटना भी व्यक्तित्व के विकास के लिए आवश्यक होता है।
कठिनाइयों का बहाना लेकर, हाथ पर हाथ रखकर बैठनेवाले व्यक्ति का इस संघर्षमय संसार में जीने का अधिकार नहीं है। आलस्य छोड़कर, दृढ़ सकंल्प लेकर, लक्ष्य-पूर्ति के लिए लगनपूर्वक जुट जानेवाला व्यक्ति कठिनाई के राक्षस को ललकारकर चुनौती दे देता है और उस पर विजय पा लेता है। दुर्गम शिखरों पर चढ़ जाना अद्भुत विजयोल्लास देता है, जिसका बोध आलसी एवं कायर को कभी नहीं होता है। उत्तम लक्ष्य की प्राप्ति के लिए बहुत दूर तक चलना है, बहुत आगे तक जाना है, इसलिए सामने आये हुए क्षणिक और क्षुद्र प्रलोभनों से ठगे न जाएँ तथा समय नष्ट न करते हुए लक्ष्य-पूर्ति की दिशा में बढ़ते रहें। सुविधा के स्वर्ग में रहने की अपेक्षा कठिनाई के नरक को स्वर्ग बना देना मानव के लिए कहीं अधिक गौरवपूर्ण हैं।
हमें धन को विशेष महत्व न देना चाहिए, न किसी व्यक्ति को केवल धन संग्रह कर लेने के कारण ही कोई विशे, महत्व देना चाहिए।'बैंक बैलेन्स' बढ़ाने का चाव हमें अमानुषिक बना देता है। धन साध्य नहीं है। धन से न महानता प्राप्त होती है, न सुख। धन स्वयं एक समस्या है और प्रायः धन पाकर लोग असन्तुलित हो जाते हैं, मानवता खो बैठते हैं, अपने लिए तथा समाज के लिए दुखदायी हो जाते हैं। धन एक वरदान है तथा अभिशाप भी। यह आप पर निर्भर है कि धन वरदान सिद्ध होता है अथवा अभिशाप। क्या धन के बिना भी आपका कोई अपना महत्व है? धन एक अभिशाप है, यदि व्यक्तित्व खोखला है। धन एक वरदान है यदि आप उसका सदुपयोग करना जानते हैं। धन का सदुपयोग आपको तथा समाज को सुख दे सकता है। उचित प्रकार से पर्याप्त धनार्जन करना और परिश्रम के बाद जो कुछ मिले, उसमें संतोष करना सब प्रकार से हितकर होता है। स्वाभिमान एवं आत्मसम्मान के नाम पर मिथ्या अहंभाव जगाना मानसिक क्लेश का कारण बन जाता है। झूठी शान सदा दुःख देती है। समझदार व्यक्ति झूठी अकड़ के कारण अपना काम नहीं बिगाड़ता है। कभी-कभी 'मूँछे नीची, झण्डा ऊँचा' को मानकर कार्य सिद्ध कर लेना चाहिए। हनुमान से सुरसा के साथ यही नीति अपनाकर उस पर विजय पायी और कार्य-सिद्धि की। झूठी शेखी में आकर न जाने कितने लोग दुर्गति को प्राप्त होते हैं। झूठी शेखी में आकर गरम कॉपी एकदम पी लेने पर प्राण गँवाने जैसी अनेक घटनाएँ घटती रहती हैं। झूठी शेखी ने अगणित घर बरबाद कर दिये।'सकल सोक दायक अभिमाना।' उचित मात्रा में धन कमाकर दान के द्वारा रिक्त होना तथा सादगी के आदर्श की ओर बढ़ना महानता है, किंतु आलस्य के कारण स्वयं मरना तथा दूसरों को गाली देना आत्मप्रवंचना है। धन कमाना बुरा नहीं है, धन का दुरुपयोग करना बुरा है, शोषण बुरा है। धन का मोह बुरा है, धन का अंहकार बुरा है। यदि प्रयत्न करने पर भी किसी क्षेत्र में परिस्थिति न सुधरे अथवा प्राकृतिक आघात, दुर्धटना आदि के कारण कोई वास्तविक विवशता हो, तो उसे सहर्ष स्वीकार कर लेना चाहिए और उससे लज्जित अथवा दुःखी होना अव्यावहारिक है।

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