Wednesday, June 15, 2011

विवेक

विवेक (सत्य का निर्धारण करना, ठीक और गलत का विचारपूर्वक भेद करने की शक्ति, गहरी समझदारी) का मूल्य पुस्तकीय ज्ञान से बढ़कर होता है। नियम-संयम मनुष्य के द्वारा ही मनुष्य के हित में बनाये गये हैं। बाधक हो जाने पर उसका संशोधन एवं परित्याग करना भी आवश्यक हो सकता है। नियम मनुष्य को जकड़ने और कुचलने के लिए नहीं है, विकास के लिए हैं। व्यक्तित्व का विकास होने पर अतिसंयम असंयम बन जाता है और अवरोधक हो जाता है। भीषण ज्वर में स्नान का आग्रह करना दुराग्रह ही है, यद्यपि स्नान करना लाभकारी होता है। साधारणतः वचनपालन धर्म्य हैं, किंतु अज्ञान एवं अबोधता अथवा धर्मान्धता में दिये गये वचन का पालन घातक और मूर्खता का परिचायक हो सकता है। (महाभारत में युधिष्ठिर के गाण्डीव धनुष को निकृष्ट कहते ही अर्जुन ने प्रतिज्ञापालन हेतु उन्हें मारने के लिए धनुष उठा लिया, किन्तु श्रीकृष्ण ने उन्हें ऐसा करने से यह समझाकर रोका कि वह प्रतिज्ञा ही अज्ञतापूर्ण थी तथा उसका समाधान अन्य प्रकार से हो सकता है। ) विवेक को त्यागकर धर्म भी धर्म नहीं रहता है। बदली हुई परिस्थिति में, अवसर के अनुरुप, दुराग्रह छोड़कर अपने निर्णय एवं निश्चय को बदल देना व्यावहारिक होता है।'प्राण जाँहि पर वचन न जाँही' सब स्थानों पर लागू नहीं होता है। जीवन के अनेक क्षेत्रों में, विशेषतः राजनीति में, कोई निर्णय अन्तिम निर्णय नहीं होता है। अनेक बार राष्ट्र के हित में युद्ध और संधि की जाती हैं, जो पूर्व निर्णय के विपरीत होती है। विवेक का सदुपयोग करना ईश्वरीय शक्ति का सदुपयोग होता है।
मनुष्य में जीने की इच्छा मृत्यु की लालसा से अधिक बलवती होती है। जीवन एक उल्लास है। तूफानी खुशी का दूसरा नाम जिन्दगी है। जीवन का गहरा, सच्चा और स्थायी सुख कब मिलता है? दूसरों के सुख के लिए जीने से। दूसरों को सुख देनेवाला व्यक्ति कभी दुःखी नहीं हो सकता है।'न हि कल्याणकृत् कश्चित् दुर्गतिं तात गच्छति' (गीता) अर्थात् दूसरों के सुख के लिए जीनेवाल व्यक्ति कभी दुःखी नहीं होता है। अपना अपमान अथवा अपनी हानि करनेवालो के भी दुःख में सुख ढूँढ़नेवाला कभी सुखी नहीं हो सकता। जीवन का सत्कार करनेवाला सबसे प्रेम करता है, सबको यथाशक्ति, यथासम्भव सुख देने का प्रयत्न करता है। मानवमात्र के प्रति प्रेम करना ही मानव का सबसे ब़ड़ा बल है। जीवन दीर्घ हो या लघु, महान् होना चाहिए। सबसे प्रेम करनेवाला, सबको सुख पहुँचानेवाला व्यक्ति सबसे बड़ा है। अच्छी प्रकार जिया हुआ लघु जीवन निरर्थक दीर्घ जीवन की अपेक्षा अधिक अच्छा है। जब तक जीवन रहे, समस्त भय छोड़कर सबको सुख देते रहें। प्रभु से अपने लिए नहीं, दूसरों के लिए प्रार्थना करें। दूसरों की मंगलकामना करे से अपना भी मंगल हो जाता है। सबके लिए जीनेवाला व्यक्ति मरकर भी अमर रहता है। दूसरों के लिए जीना, दूसरों के लिए प्रार्थना करना, दूसरों के सुख के लिए स्वयं दुःख उठाना, सच्चे सुख की सच्ची राह है।
प्रत्येक व्यक्ति के जीवन में कुछ समय के लिए अकारण ही मानसिक उदासी और उत्फुल्लता का दौर आता रहता है। उदासी के दौर में निराशा को घर करने न देना चाहिए तथा समझ लेना चाहिए कि वह दौर स्वयमेव निकल जायगा। उत्फुल्लता के दौर में किसी उत्तम कर्म में जुट जाना चाहिए।

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